नई दिल्ली
सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में कहा है कि मानसिक रूप से बीमार अफसर के खिलाफ अनुशासनात्मक जांच शुरू करना परोक्ष रूप से भेदभाव करना है। कोर्ट सीआरपीएफ के एक अधिकारी के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही पर निर्णय कर रहा था, जिसे 40 से 70 फीसदी मानसिक विकलांग पाया गया था। कोर्ट ने उसके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही निरस्त कर दी।
अदालत ने यह दलील देते हुए कहा कि अपंग व्यक्ति आरपीडब्ल्यूडी (विकलांग व्यक्ति अधिकार) कानून के अनुसार संरक्षण का अधिकारी है। मानसिक अपंगता एकमात्र कदाचार नहीं होना चाहिए, जिसके आधार पर अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू की गई है। ऐसे व्यक्ति का दिमाग पर नियंत्रण समाप्त हो जाता है और यह उसके व्यवहार में आ जाता है। ऐसा व्यक्ति कार्यस्थल पर अन्य स्वस्थ साथियों की तरह काम नहीं कर सकता। इस प्रकार मानसिक अपंगता वाले व्यक्ति के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही परोक्ष भेदभाव का एक पहलू है।
शनिवार को एक सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मानसिक रूप से बीमार अफसर के खिलाफ की जाने वाली अनुशासनात्मक कार्यवाही उसके साथ भेदभाव करने जैसा है। कोर्ट ने कहा कि जब यह पाया जाता है कि वह अपनी मौजूदा ड्यूटी के लिए अनुपयुक्त हो गया है तो वह आरपीडब्ल्यूडी कानून की धारा 20 (4) के अनुसार संरक्षण का अधिकारी है। प्रशासन को उसे दूसरी पोस्ट पर भेजते समय यह देखना चाहिए कि उसका वेतन, भत्ते और सेवा शर्तें संरक्षित रहे। प्रशासन यह देख सकता है कि उसे ऐसे पद पर न भेजा जाए जहां उसे हथियारों पर नियंत्रण रखना पड़े या उनका इस्तेमाल करना पड़े।
यह है मामला
याचिकाकर्ता ने 2001 में सीआरपीएफ ज्वाइन की थी। 2010 में जब वह अजमेर में पदस्थापित था तब उसके खिलाफ डीआईजी ने शिकायत दर्ज करवाई, जिसमें कहा गया था कि अधिकारी कहता है कि उसे मारने या मरने की इच्छा होती है। उसने धमकी दी कि वह गोली चला सकता है। इसके बाद उसके खिलाफ जांच शुरू की गई कि वह गालियां देता है, बिना मंजूरी लिए टीवी चैनल और अखबारों में पेश हो रहा है। जानबूझकर दुर्घटना करने को तैयार रहता है। 2015 में उसे नोटिस जारी हुआ। इससे पहले 2009 में उसे अवसाद होने लगा था। उसे आरएमएल अस्पताल भेजा गया था, जहां उसे 40 से 70 फीसदी मानसिक विकलांग पाया गया। लेकिन फिर भी उसे ड्यूटी पर रखा गया।