जीव परमेश्वर की परा प्रकृति (शक्ति) है। अपरा शक्ति तो पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार जैसे विभिन्न तत्वों के रूप में प्रकट होती है। भौतिक प्रकृति के ये दोनों रूप-स्थूल (पृथ्वी आदि) तथा सूक्ष्म (मन आदि) अपरा शक्ति के ही प्रतिफल हैं। जीव जो अपने विभिन्न कार्य के लिए अपरा शक्तियों का विदोहन करता रहता है, स्वयं परमेश्वर की परा शक्ति है और यह वही शक्ति है जिसके कारण सारा संसार कार्यशील है। इस दृश्य जगत में कार्य करने की तब तक शक्ति नहीं आती, जब तक परा शक्ति अर्थात जीव द्वारा यह गतिशील नहीं बनाया जाता। शक्ति का नियंत्रण सदैव शक्तिमान करता है, अत: जीव सदैव भगवान द्वारा नियंत्रित होते हैं। जीवों का अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है।
वे कभी भी सम शक्तिमान नहीं, जैसा कि बुद्धिहीन मनुष्य सोचते हैं। श्रीमद्भागवत में जीव तथा भगवान के अन्तर को इस प्रकार बताया गया है- ‘प्र्े परम शात! यदि सारे देहधारी जीव आप ही की तरह शात एवं सर्वव्यापी होते तो वे आपके नियंत्रण में न होते। किन्तु यदि जीवों को आपकी सूक्ष्म शक्ति के रूप में मान लिया जाए, तब वे सभी आपके परम नियंत्रण में आ जाते हैं। अत: वास्तविक मुक्ति आपकी शरण में जाना है और इस शरणागति से वे सुखी होंगे।
परमेश्वर कृष्ण एकमात्र नियन्ता हैं और सारे जीव उन्हीं के द्वारा नियंत्रित हैं। सारे जीव उनकी पराशक्ति हैं, क्योंकि उनके गुण परमेश्वर के समान हैं, किन्तु वे शक्ति की मात्रा के विषय में समान नहीं हैं। स्थूल व सूक्ष्म अपरा शक्ति का उपभोग करते हुए परा शक्ति (जीव) को अपने वास्तविक मन तथा बुद्धि की विस्मृति हो जाती है। इसका कारण जीव पर जड़ प्रकृति का प्रभाव है। माया के प्रभाव में अहंकार सोचता है, मैं ही पदार्थ हूं और सारी भौतिक उपलब्धि मेरी है किंतु जब वह सारे भौतिक विचारों से मुक्त हो जाता है, तो उसे वास्तविक स्थिति प्राप्त होती है। गीता जीव को कृष्ण की अनेक शक्तियों में से एक मानती है और जब यह शक्ति भौतिक कल्मष से मुक्त हो जाती है, तो पूर्णतया कृष्णभावनाभावित या बंधनमुक्त हो जाती है।