ईश्वर से प्रेम करना है वास्तविक प्रेम 

बहुत से ऐसे लोग मिलेंगे जो कहेंगे कि उन्हें किसी से प्यार हो गया है। अपने प्रेम को पाने के लिए वह दुनिया छोड़ने की बात करेंगे। लेकिन वास्तव में प्रेम को पाने के लिए दुनिया छोड़ने जरूरत ही नहीं है। प्रेम तो दुनिया में रहकर ही किया जाता है। जो दुनिया छोड़ने की बात करते हैं वह तो प्रेमी हो ही नहीं सकते है। दुनिया छोड़ने की बात करने वाले लोग वास्तव में रूप के आकर्षण में बंधे हुए लोग होते हैं। वह प्रेम के वास्तविक स्वरूप से अनजान होते हैं। ऐसी स्थिति कभी रामचरित मानस के रचयिता तुलसीदास जी की भी थी, लेकिन जब उन्हें प्रेम का सही बोध हुआ तब वह परम पद को पाने में सफल हुए।  
तुलसीदास जी के युवावस्था के समय की बात है इनका विवाह एक अति रूपवती कन्या से हुआ जिसका नाम रत्नावली था। रत्नवती के रूप में तुलसीदास ऐसे खो गये कि उनके बिना एक क्षण जीना उनके लिए कठिन प्रतीत होने लगा। एक बार रत्नावली अपने मायके चली आयी तो तुलसीदास बचैन हो गये। आधी रात को आंधी तूफान की परवाह किये बिना रत्नावती से मिलने चल पड़े। नदी उफन रही थी जिसे पार करने के लिए वह एक आश्रय का सहारा लेकर तैरने लगे।  
रत्नावली के ख्यालों में तुलसीदास जी ऐसे खोये हुए थे कि उन्हें यह पता भी नहीं चला कि वह जिस चीज का आश्रय लेकर नदी पार कर रहे हैं वह किसी व्यक्ति का शव है। रत्नावली के कमरे में प्रवेश के लिए तुलसीदास जी ने एक सांप का पूंछ रस्सी समझकर पकड़ लिया जो उस समय रत्नावली के कमरे की दीवार पर चढ़ रहा था।  
रत्नावली ने जब तुलसीदास को अपने कमरे में इस प्रकार आते देखा तो बहुत हैरान हुई और तुलसीदास जी से कहा कि हाड़-मांस के इस शरीर से जैसा प्रेम है वैसा प्रेम अगर प्रभु से होता तो जीवन का उद्देश्य सफल हो जाता है। तुलसीदास को पत्नी की बात सुनकर बड़ी ग्लानि हुई और एक क्षण रूके बिना वापस लैट आए। तुलसीदास का मोह भंग हो चुका था। इस समय उनके मन में भगवान का वास हो चुका था और अब वह सब कुछ साफ-साफ देख रहे थे। नदी तट पर उन्हें वही शव मिला जिसे उन्होंने नदी पार करने के लिए लकड़ी समझकर पकड़ लिया था।  
तुलसीदास जी अब प्रेम का सच्चा अर्थ समझ गये थे। तुलसीदास जान चुके थे कि वह जिस प्रेम को पाने के लिए बचैन थे वह तो क्षण भंगुर है। यह प्रेम तो संसार से दूर ले जाता है। वास्तविक प्रेम तो ईश्वर से हो सकता है जो कण-कण में मौजूद है उसे पाने के लिए बेचैन होने की जरूरत नहीं है उसे तो हर क्षण अपने पास मौजूद किया जा सकता है। इसी अनुभूति के कारण तुलसीदास राम के दर्शन पाने में सफल हुए। जिस पत्नी से मिलने के लिए तुलसी अधीर रहते थे वही उनकी शिष्य बनकर उनका अनुगमन करने लगी।