दर्शन के क्षेत्र में ज्ञान और ज्ञेय की मीमांसा चिरकाल से होती रही है। आदर्शवादी और विज्ञानवादी दर्शन ज्ञेय की स्वतंत्र सत्ता स्वीकार नहीं करते। वे केवल ज्ञान की ही सत्ता को मान्य करते हैं। अनेकांत का मूल आधार यह है कि ज्ञान की भांति ज्ञेय की भी स्वतंत्र सत्ता है। द्रव्य ज्ञान के द्वारा जाना जाता है, इसलिए वह ज्ञेय है। ज्ञेय चैतन्य के द्वारा जाना जाता है, इसलिए वह ज्ञान है। ज्ञेय और ज्ञान अन्योन्याश्रित नहीं हैं। ज्ञेय है, इसलिए ज्ञान है और ज्ञान है इसलिए ज्ञेय है, इस प्रकार यदि एक के होने पर दूसरे का होना सिद्ध हो तो ज्ञेय और ज्ञान दोनों की स्वतंत्र सत्ता सिद्ध नहीं हो सकती। द्रव्य का होना ज्ञान पर निर्भर नहीं है और ज्ञान का होना द्रव्य पर निर्भर नहीं है। इसलिए द्रव्य और ज्ञान दोनों स्वतंत्र हैं। ज्ञान के द्वारा द्रव्य जाना जाता है, इसलिए उनमें ज्ञेय और ज्ञान का संबंध है। ज्ञेय अनंत है और ज्ञान भी अनंत है। अनंत को अनंत के द्वारा जाना जा सकता है। जानने का अगला पर्याय है कहना। अनंत को जाना जा सकता है, कहा नहीं जा सकता। कहने की शक्ति बहुत सीमित है। जिसका ज्ञान अनावृत्त होता है, वह भी उतना ही कह सकता है जितना कोई दूसरा कह सकता है। भाषा की क्षमता ही ऐसी है कि उसके द्वारा एक बार में एक साथ एक ही शब्द कहा जा सकता है।
हमारे ज्ञान की क्षमता भी ऐसी है कि हम अनंतधर्मा द्रव्य को नहीं जान सकते। हम अनंत-धर्मात्मक द्रव्य के एक धर्म को जानते हैं और एक ही धर्म का प्रतिपादन करते हैं। एक धर्म को जानना और एक धर्म को कहना नय है। यह अनेकांत और स्याद्वाद का मौलिक स्वरूप है। उनका दूसरा स्वरूप है प्रमाण। अनंत-धर्मात्मक द्रव्य को जानना और उसका प्रतिपादन करना प्रमाण है। हम अनंतधर्मा द्रव्य को किसी एक धर्म के माध्यम से जानते हैं। इसमें मुख्य और गौण दो दृष्टिकोण होते हैं। द्रव्य के अनंत धर्मो में से कोई एक धर्म मुख्य हो जाता है और शेष धर्म गौण। नय हमारी वह ज्ञान-पद्धति है, जिसमें हम केवल धर्म को जानते हैं, धर्मो को नहीं जानते। प्रमाण हमारी वह ज्ञान-पद्धति है, जिससे हम एक धर्म के माध्यम से समग्र धर्मो को जानते हैं।