भाद्रपद मास की पूर्णिमा से पितृ पक्ष प्रारंभ हुआ। पितृपक्ष में आज के दिन द्वादशी तिथि का श्राद्ध किया जाता है। द्वादशी तिथि के दिन पितरों के साथ साधुओं संतों के श्राद्ध की भी परंपरा बताई गई है। मान्यता है कि जो भी व्यक्ति अपने (मरे) पूर्वज का द्वादशी तिथि के दिन पूरे विधि-विधान से श्राद्ध, तर्पण, पिण्डदान आदि करता है,तो उनके पूर्वज की आत्मा को मोक्ष की प्राप्ति होती है और हमें उनका आशीर्वाद प्राप्त होता है।
हिंदू धर्म में पितृ पक्ष के दौरान पितरों की मुक्ति और उनका आशीर्वाद पाने के लिए श्राद्ध करने की परंपरा है। पितृ पक्ष में पितरों के लिए विधि- विधान से श्राद्ध करने की परंपरा जो है, वो लंबे समय से चली आ रही है। पितृपक्ष में पड़ने वाली द्वादशी तिथि को द्वादशी श्राद्ध, सन्यासी श्राद्ध और बारस श्राद्ध के नाम से भी जाना जाता है। आइए जानते हैं कि पितृ पक्ष की द्वादशी तिथि पर पितरों और साधु-संतों के लिए किस समय श्राद्ध करना सही है।
किसका किया जाता है श्राद्ध
पितृपक्ष की द्वादशी तिथि पर सााधु-संतों का श्राद्ध करने की परंपरा है। यदि किसी भी व्यक्ति के परिवार से जुड़े किसी भी व्यक्ति ने गृहस्थ आश्रम को छोड़कर संन्यास जीवन बिताने की ओर चला है और उनके दिवंगत होने की तिथि आपको ज्ञात नहीं है, तो पितृ पक्ष के द्वादशी तिथि के दिन उनका विशेष रूप से श्राद्ध किया जा सकता है। इसके साथ ही साथ इस तिथि के दिन दिवंगत हुए परिजनों का भी श्रद्धा से श्राद्ध करने की परंपरा है।
कब करें द्वादशी श्राद्ध
पितृपक्ष में कुतुप बेला में पितरों के लिए श्राद्ध के लिए सबसे उत्तम बताया गया है।पंचांग के अनुसार आज कुतुप मुहूर्त में पूज्य संतों या अपने दिवंगत परिजन का श्राद्ध इसी मुहूर्त में करें
द्वादशी श्राद्ध की विधि
आज के दिन द्वादशी तिथि के कुतुप मुहूर्त में किसी भी योग्य ब्राह्मण को बुलाकर अपने पितरों और साधु-संतों का विधि-विधान श्राद्ध, तर्पण , दान आदि करना चाहिए। इसमें एक बात का ध्यान रखें की जब श्राद्ध कर्म करें तब उसमें जल, कुश और काला तिल का विशेष रूप से प्रयोग करें। आज के दिन दिवंगत साधु-संतों की आत्मा की तृप्ति और उनका आशीर्वाद पाने के लिए अपनी क्षमता के अनुसार भंडारा करवा कर दान देना चाहिए।
भोजन करने से पहले एक बात का ध्यान दे की सबसे पहले साधु-संतों को भोजन कराने से पहले कुत्ते, कौए, गाय आदि के लिए भोजन का अंश जरूर निकालें। इनको भोजन और दान दक्षिणा में अपनी क्षमता के अनुसार कोई कमी ना रखें। साधु-संतों और ब्राह्मण को श्रद्धा और आदर के साथ भोजन करने के बाद अपने सामर्थ्य के अनुसार दान देकर उनका आशीर्वाद अवश्य लें कर साधु-संतों और ब्राह्मणों को विदा करें।