लखनऊ
राजनीतिक महत्वाकांक्षा और ख्याति की लालसा के सामने पैसे का महत्व सनातन काल से गौण रहा है। इसके तमाम प्रमाण भी हैं। इन्हीं में से एक प्रमाण बिना किसी जनाधार के चुनाव में कूदकर अपनी जमानत गंवाने वाले नेताओं का भी है। यूपी जैसे बड़े प्रदेश में जमानत गंवाकर भी नाम कमाने की इच्छा रखने वाले नेताओं की बहुत लम्बी फेहरिस्त है। प्रदेश के बीते 10 विधानसभा चुनावों के आंकड़े देखें तो 1996 के विधानसभा चुनाव को छोड़कर शेष सारे चुनावों में 75 प्रतिशत से अधिक उम्मीदवारों की जमानत जब्त होती रही है। मजे की बात यह है कि इसके बावजूद चुनावों में खड़े होने वाले प्रत्याशियों की संख्या कम होने का नाम नहीं ले रही।
1993 के विधानसभा चुनाव में तो जमानत जब्ती का आंकड़ा 89 प्रतिशत को भी पार कर गया था जो एक रिकार्ड है। प्रदेश के अस्सी के दशक के बाद के चुनावीं आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 1996 एवं 2017 का चुनाव ही ऐसा चुनाव रहा जिसमें 77 फीसदी से कम प्रत्याशियों की जमानत जब्त हुई जबकि उसके बाद या पहले के चुनावों में यह आंकड़ा 85 फीसदी के पार ही रहा। राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि भले ही तमाम लोग शौकिया चुनाव मैदान में कूदते हों लेकिन अगर उन पर होने वाले सरकार राजस्व की हानि का आंकलन किया जाए तो चुनाव दर चुनाव ऐसे हजारों प्रत्याशियों पर प्रति चुनाव करोड़ों का राजस्व खर्च हो रहा है।