म्यांमार
एक साल पहले म्यांमार के सैनिक जनरलों ने शासन पर कब्जा कर लिया. म्यांमार में सेना और सैनिक तख्तापलट के विरोधी आमने सामने हैं. राष्ट्रव्यापी प्रदर्शनों ने देश पर उनका नियंत्रण नहीं होने दिया है. इरावदी की त्रासदी जारी है.म्यांमार में 1 फरवरी 2021 को तख्तापलट के बाद से हजारों लोग मारे गए हैं. उनमें प्रदर्शनकारियों के अलावा प्रतिरोध संघर्षकर्ता, सरकारी अधिकारी, सैनिक और नागरिक शामिल हैं. हालांकि, विश्वसनीय आंकड़े बामुश्किल उपलब्ध हैं. सैन्य शासन का विरोध करने वाले मानवाधिकार संगठन "असिस्टेंस एसोसिएशन फॉर पॉलिटिकल प्रिजनर्स (बर्मा)" के अनुसार, तख्तापलट के सिलसिले में 1463 "नायकों" की जान गई (13.01.2022 तक). गैर सरकारी संगठन "द आर्म्ड कॉन्फ्लिक्ट लोकेशन एंड इवेंट डेटा प्रोजेक्ट" (एसीएलईडी) ने पिछले साल समाचार पत्रों के लेखों, गैर-सरकारी संगठनों और सोशल मीडिया की रिपोर्टों के आधार पर 11,000 से अधिक मौतें दर्ज कीं. विश्व बैंक के अनुसार, देश के आर्थिक उत्पादन में 2021 में 18 प्रतिशत की गिरावट आई है. संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के अनुसार, लगभग साढ़े तीन लाख लोग देश के अंदर ही विस्थापित हो गए. अधिक से अधिक पत्रकारों को मारा जा रहा है, कैद किया जा रहा है या वे देश छोड़ कर जा रहे हैं.
म्यांमार के विशेषज्ञ डेविड स्कॉट माथिसन ने बर्मी और अंग्रेजी मासिक समाचार पत्र "द इरावदी" के ऑनलाइन संस्करण के साथ एक साक्षात्कार में म्यांमार में हो रहे विकास के बारे में कहा, "मेरी राय में, मौजूदा स्थिति द्वितीय विश्व युद्ध के बाद म्यांमार को मिली आजादी के बाद से सबसे खराब है. असल में, सेना ने अपने ही लोगों के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी है" प्रतिरोध के विविध रूप पिछले दशकों के विपरीत, जब संघर्ष मुख्य रूप से बामार जाति बहुल सेना के जवानों और जातीय अल्पसंख्यकों के बीच हो रहा था, आज बर्मा के हार्टलैंड में भी भयंकर लड़ाई हो रही है, जैसे कि केंद्रीय बर्मी राज्य सागिंग में. लाखों लोगों के राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शनों के काफी हद तक विफल हो जाने के बाद सशस्त्र प्रतिरोध उत्पन्न हुआ. सेना बड़े पैमाने पर बल के उपयोग के साथ लोगों को सड़कों से दूर करने में कामयाब रही, लेकिन इससे सैन्य जुंटा की अस्वीकृति को और बल मिला. हालांकि कोई गंभीर शोध नहीं हुआ है, फिर भी पर्यवेक्षक इस बात से सहमत हैं कि आबादी का एक बड़ा बहुमत सैनिक सरकार को अस्वीकार करता है. ये बात इससे भी पता चलती है कि सैन्य विशेषज्ञ एंथनी डेविस के अनुसार, देश भर में करीब लगभग 50 जनरक्षा टुकड़ियां बन गई हैं, जो हथियारबंद जातीय समूहों के समर्थन से, सैन्य कर्मियों, पुलिस अधिकारियों, कथित या वास्तविक मुखबिरों और सुरक्षा संस्थानों पर हमले करते हैं, और यहां तक कि सेना के साथ झड़पों में उलझाते हैं. मिलिशिया और नागरिक विरोध आंदोलन के अलावा, जातीय समूह और उनकी सेनाएं देश में सेना के विरोध में तीसरी ताकत बन कर उभरी है. ये लंबे समय से या तो स्वतंत्र या केंद्र सरकार के साथ संघर्ष में रहे हैं. अंतर्राष्ट्रीय संकट समूह की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार, उनमें से कुछ सेना के विरोधियों को आश्रय और प्रशिक्षण प्रदान करते हैं, लेकिन अपने इलाकों में कमान अपने हाथों में रखने पर जोर देते हैं. रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि हालांकि कई हथियारबंद जातीय समूह सेना के दुश्मन हैं, लेकिन वे खुले तौर पर विपक्ष का समर्थन नहीं करते हैं क्योंकि संघर्ष का नतीजा निश्चित नहीं है. तीन परिदृश्य देश में हालात कैसे विकसित होंगे, यह किसी को नहीं पता. तीन परिदृश्यों की कल्पना की जा सकती है: सेना हालात पर काबू पाने में कामयाब होगी, विपक्ष बढ़त हासिल कर लेगा, या गतिरोध जारी रहेगा. इन तीन में से किसी परिदृश्य का मतलब म्यांमार के लिए शांति और विकास का आना नहीं है. यदि सेना ताकतवर हो, और कुछ जातीय अल्पसंख्यक क्षेत्रों के अपवाद के साथ देश के बड़े हिस्सों पर नियंत्रण हासिल कर ले और तख्तापलट के बाद किए गए वादे के अनुसार चुनाव करवा दे, फिर भी आबादी के एक बड़े हिस्से द्वारा सैनिक शासन की गहरी अस्वीकृति बनी रहेगी.