नई दिल्ली
चीनी एंबेसी द्वारा भारतीय सांसदों को भेजी गई चिट्ठी का मामला गर्माता जा रहा है। बता दें कि चीनी एंबेसी ने भारतीय नेताओं के एक तिब्बती कार्यक्रम में शामिल होने पर चिंता जताई है। चीनी डिप्लोमैट ने कई नेताओं को एक चिट्ठी भी भेजी है और कहा है कि तिब्बत से जुड़े कार्यक्रम से दूर रहा जाए। अब तिब्बत की निर्वासित सरकार ने मामले को लेकर चीन को लताड़ लगाई है।
तिब्बत को चीन का हिस्सा बताना काल्पनिक
तिब्बत की निर्वासित सरकार के प्रवक्ता तेंजिन लेक्शय ने कहा है कि चीन का तिब्बत को प्राचीन काल से चीन का अविभाज्य अंग बताने का दावा काल्पनिक और निराधार है। 1949 में पीपल्स रिपब्लिक के गठन के दौरान तिब्बत पर चीन ने कब्जा किया था। उन्होंने कहा है कि चीन द्वारा केंद्रीय तिब्बती प्रशासन को अलगाववादी राजनीतिक समूह के रूप में बुलाने से चीन-तिब्बत संघर्ष को सुलझाने में मदद नहीं मिलने वाली। यह जगजाहिर है कि मिडिल वे पॉलिसी अलगाव के बारे में नहीं है बल्कि यह चीनी संविधान के ढांचे के भीतर वास्तविक स्वायत्तता को लेकर है।
तिब्बत मसला चीन का आंतरिक मसला नहीं
तेंजिन ने चीन सरकार को लताड़ लगाते हुए कहा है कि तिब्बत मुद्दा निश्चित रूप से चीन का आंतरिक मुद्दा नहीं है। तिब्बत में जो कुछ भी हो रहा है वह दुनिया भर के सभी लोगों के लिए एक गंभीर चिंता का विषय है। उन्होंने आगे कहा है कि चीन यदि तिब्बत और तिब्बती लोगों की भलाई के बारे में गंभीर हैं, तो उनके लिए बातचीत के जरिए चीन-तिब्बत संघर्ष को सुलझाने की कोशिश करनी चाहिए। मसले को सकारात्मक रूप से सुलझाने का वक्त आ गया है।
भारत की तिब्बत नीति
भारत की तिब्बत के निर्वासित नेताओं के प्रति लगातार सहायक की नीति रही है। करीब साठ साल पहले 80 हजार से अधिक तिब्बती अपने आध्यात्मिक नेता दलाई लामा के साथ कम्युनिस्ट शासन के खिलाफ एक असफल विद्रोह के बाद ल्हासा छोड़कर भारत पहुंचे थे। हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में तिब्बती निर्वासन प्रशासन स्थित है जहां आध्यात्मिक नेता भी रहते हैं। करीब 1।4 लाख तिब्बती अब निर्वासन में रह रहे हैं, जिनमें से एक लाख से अधिक भारत के विभिन्न भागों में हैं।