धीरेंदु मजूमदार की मां दरअसल क्षीण होती मनुष्यता की मां है…

भोपाल में खेले गये नाटक धीरेंदु मजूमदार की मां ने न केवल दर्शकों को आज़ादी की लड़ाई के कुछ अनसुने किस्सों से रूबरू कराया बल्कि यह भी बताया कि कैसे क्रांतिकारियों की सोहबत अपने घर-परिवार में रमी रहने वाली एक स्त्री की चेतना का अभूतपूर्व विकास करती है। नाटक ने अपने कथ्य के सहारे समकालीन राजनीतिक प्रश्नों को भी छुआ।_

राजधानी भोपाल के रंगश्री लिटिल बैले ट्रूप नाट्यगृह में जब नाटक “धीरेंदु मजूमदार की मां” का मंचन समाप्त हुआ तो भीगे हुए मन से दर्शकों ने जो तालियां बजाईं, उनकी गूंज इस बात की तस्दीक़ कर रही थी कि आंखें भले ही नम हों लेकिन उनके भीतर भी धीरेंदु मजूमदार की मां की आत्मा अपने पूरे जज्बे के साथ मौजूद है।
डॉक्यु ड्रामा की शक्ल में खेला गया यह नाटक इतिहास और वर्तमान के बीच बार-बार आवाजाही करता है लेकिन इतनी खू़बसूरती के साथ कि दर्शकों को किसी भी क्षण किसी प्रकार की दुविधा महसूस नहीं होती। भारत की आज़ादी की लड़ाई से शुरू हुई धीरेंदु मजूमदार की मां शांति मजूमदार की कहानी बरास्ते बांग्लादेश के निर्माण के आखिरकार भारत के एक शरणार्थी शिविर में समाप्त होती है (क्या सचमुच समाप्त होती है?)।

धीरेंदु मजूमदार की मां की कहानी दरअसल केवल एक क्रांतिकारी की मां की कहानी नहीं है बल्कि वह एक जमींदार परिवार की नितांत घरेलू स्त्री के स्व उन्नयन और स्वयं क्रांतिकारी और स्वतंत्रता सेनानी बनने की कहानी भी है। एक ऐसे परिवार की स्त्री जहां महिलाओं को डॉक्टर को इसलिए नहीं दिखाया जा सकता क्योंकि वह परपुरुष है, भले ही उनकी मौत हो जाए। ऐसे परिवार से निकली नायिका न केवल क्रांतिकारियों की साथी बनती है बल्कि गांधी के आंदोलन से लेकर बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम तक में अपना योगदान देती है।
पहले दृश्य से ही नाटक अपनी मार्मिक कथावस्तु और वैचारिक आधार के साथ जिस तरह दर्शकों को अपने साथ बांधता है, वह एकल अभिनय वाले नाटकों की दृष्टि से एक अत्यंत उल्लेखनीय बात है। किसी एक कलाकार द्वारा पूरे एक घंटे तक न केवल मंच को साधे रखना बल्कि दर्शकों को भी पूरी तरह अपने वश में किए रहना नाटक की कथावस्तु और नायिका का अभिनय कर रही सुश्री फ्लोरा बोस की अभिनय क्षमता दोनों की स्वत: गवाही देता है।
चूंकि यह एक डॉक्यु ड्रामा था इसलिए इसमें एक प्रोजेक्टर स्क्रीन के जरिये वीडियो क्लिप्स का भी सटीक प्रयोग किया गया। इन क्लिप्स के माध्यम से पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान के संघर्ष, बंगाली मुसलमानों के भीषण दमन, शेख मुजीब उर रहमान की राजनैतिक यात्रा को बखूबी दर्शाया गया है। शेख मुजीब की हत्या के बाद नायिका के शरणार्थी बनकर भारत में आने और अपनी नागरिकता की तलाश करते हुए बोले गए संवाद लंबे समय तक जेहन में रह जाने वाले हैं।
हालांकि नाटक के इस हिस्से में वीडियो का अधिक प्रयोग नाटक की गति को एक हद तक बाधित करता है तो वहीं इसका एक सकारात्मक पहलू यह भी है कि यह नाटक देखने आए युवाओं को पाकिस्तान-बांग्लादेश और भारत के इतिहास के एक ऐसे कालखंड को सजीव देखने का अवसर देता है जिससे वे अन्यथा शायद वंचित ही रह जाते। सूर्य सेन तथा उनके क्रांतिकारी साथियों के बारे में जहां बिना खोजे अधिक जानकारी नहीं मिलती वहीं यह नाटक दर्शकों को उनसे भी परिचित कराता है।
नाटक के आखिरी हिस्से में देश की समकालीन राजनीति और अल्पसंख्यकों तथा देश की विभिन्न क्षेत्रीयताओं वाले नागरिकों के साथ राज्य के व्यवहार को लेकर एक मुखर वक्तव्य दिया गया है। फिर चाहे वे शाहीन बाग की दादियां हों या मुंबई में भइया कहे जाने वाले उत्तर भारतीय, उन सभी को अलग-अलग स्तरों पर अपनी-अपनी पहचान के लिए जूझना पड़ रहा है। नाटक के इस हिस्से में बहुसंख्यक हितों को ध्यान में रखकर काम करने वाली सरकार के अपने जवाबदेहिता से मुकर जाने और हाशिए पर बैठे समाज को और कोने में धकेल देने या कहें डिटेंशन कैंप तक पहुंचा देने के षडयंत्र को बखूबी बेनकाब किया गया है।
ललिताम्बिका अंतर्जनम द्वारा मूल रूप से मलयाली में लिखी कहानी का नाट्य रूपांतरण किया है जया मेहता और विनीत तिवारी ने तथा इसकी नायिका हैं सुप्रसिद्ध अभिनेत्री फ्लोरा बोस। नाटक की कहानी को आगे बढ़ाने के लिए दिया गया नैरेशन भी विनीत तिवारी की आवाज में है जो बेहद सधा हुआ और शानदार है।
फ्लोरा बोस ने शांति मजूमदार के संघर्षमय जीवन को इस विश्वसनीयता के साथ मंच पर निभाया कि वह एक पल के लिए भी कोई और लगी ही नहीं। जैसा कि नाटक के बाद हुई चर्चा में वरिष्ठ कथाकार रमाकांत श्रीवास्तव ने नाटक की पूरी टीम को अच्छी प्रस्तुति के लिए बधाई दी। उन्होंने सन 1971 के बांग्लादेश मुक्ति संग्राम और शेख मुजीब उर रहमान को याद किया। उन्होंने उस घटना को भी याद किया कि मुजीब की जान को खतरा था और वह यह जानते थे लेकिन उन्हें अपने देश और जनता पर पूरा भरोसा था हालांकि इसकी कीमत उन्हें अपनी जान देकर गंवानी पड़ी।
वरिष्ठ कवि-कथाकार कुमार अंबुज ने कहा कि यह नाटक धीरेंदु मजूमदार की मां के संघर्षों कहानी है और यह नाटक बार-बार मैक्सिम गोर्की के उपन्यास ‘मां’ और महाश्वेता देवी के ‘हजार चौरासी की मां’ की याद दिलाता रहा। उन्हें इसे मार्मिकता से भरी प्रस्तुति बताते हुए कहा कि उसके साथ ही यह नाटक युद्ध और विस्थापन तथा बदलाव की एक पूरी प्रक्रिया को अपने आप में समेटे हुए है जो समाज के सामने कई प्रश्न खड़े करता है।
कवि अनिल करमेले ने कहा कि नाटक अपना संदेश देने में पूरी तरह सफल रहा है। देश में स्त्रियों, दलितों और अल्पसंख्यकों के लिए जिस प्रकार जगह कम होती जा रही है उस पीड़ा को भी नाटक सामने रख पाता है। उन्होंने कहा कि यह जरूरी समय है जब हमें अपने समाज को संविधान के अनुरूप् बनाना होगा।
युवा पत्रकार और कवि पूजा सिंह ने कहा कि नाटक भले ही अपने आप में एक बड़े राजनैतिक और सामाजिक परिदृश्य को समेटे हुए है लेकिन फ्लोरा बोस का अभिनय इतना प्रभावशाली है कि पूरे समय हमारे देश काल की कई मांएं- मसलन नजीब की मां और रोहित वेमुला की मां भी हमें याद आती रहीं। उन्होंने कहा कि क्रांतिकारियों जीवन संघर्ष, शांति मजूमदार में आए क्रांतिकारी बदलाव के जिक्र के साथ नाटक बंधुत्व और स्वतंत्रता समेत तमाम जीवन मूल्यों की महत्ता भी बताता है। इनके अलावा नगीन तनवीर, संध्या शैली समेत अनेक अन्य प्रबुद्ध दर्शकों ने अपनी प्रतिक्रिया दी।
आखिर में जया मेहता और फ्लोरा बोस ने आज़ादी की लड़ाई में अपने-अपने परिवार की हिस्सेदारी याद भी दर्शकों से साझा किया।

रिपोर्ट- संदीप कुमार