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संविधान निर्माता ही नहीं, समानता के देवदूत डॉक्टर भीमराव अंबेडकर

डॉ राघवेंद्र शर्मा
भारत रत्न डॉक्टर भीमराव अंबेडकर को देशभर में ही नहीं, अपितु अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के संविधान निर्माता के रूप में जाना पहचाना जाता है। किंतु यह उनका आधा अधूरा परिचय है। वास्तव में तो डॉक्टर भीमराव अंबेडकर एक ऐसे देवदूत थे, जिन्होंने भारतीय जनमानस के भीतर गहरे तक बैठे हुए छुआछूत के रोग से लगाता संघर्ष किया। डॉक्टर अंबेडकर तत्समय अछूत कहे जाने वाले वर्ग के लोगों को उनका अधिकार दिलाने में भी काफी हद तक सफल साबित हुए। चूंकि डॉक्टर भीमराव अंबेडकर स्वयं भी एक दलित परिवार में जन्मे थे। लिखने में कोई संशय नहीं है कि तत्समय कुछ स्वयंभू पंडितों की मनमानियां के चलते दलितों के साथ छुआछूत का बर्ताव किया जाता था। उनका मंदिर प्रवेश वर्जित था। जिस कुए से सामान्य वर्ग के लोग पानी भरते थे, वहां तक पहुंचना अभी इस वर्ग के लिए असंभव और दुष्कर कार्य हुआ करता था। बता दें कि छुआछूत की विडंबना पूर्ण व्यवस्था का शिकार स्वयं भीमराव भी हुए। शिक्षा प्राप्ति से लेकर नौकरी करने तक उन्हें हर कहीं इस बात का एहसास कराया गया कि वह सामान्य नागरिक ना होकर एक दलित परिवार के दुर्भाग्य शाली व्यक्ति हैं। यही वजह है कि जब उनकी शिक्षा पूरी हुई और नौकरी में मन नहीं लगा तो उन्होंने अपने आप को देश सेवा के लिए समर्पित किया। तब उनके भीतर यह भाव मजबूती के साथ अंतर्मन तक बैठ चुका था कि जब तक हिंदू समाज के बीच विद्यमान ऊंच-नीच के भेदभाव को हटाया नहीं जाएगा, तब तक देश मजबूत नहीं होगा। यही कारण रहा कि जब जब उन्हें दलितों के उद्धार के बीच में जो भी व्यक्ति बाधा बनता प्रतीत हुआ , वह उससे सीधे-सीधे भिड़ गए। पाठकों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि एक समय वे महात्मा गांधी से भी इसलिए लड़ बैठे थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि कांग्रेस और अंग्रेज दलितों के उद्धार मार्ग में बाधा साबित हो रहे हैं और महात्मा गांधी इस बात को मानने के लिए तैयार ही नहीं हो रहे थे। स्मरण रहे 1931 में जब दूसरा गोलमेज सम्मेलन लंदन में संपन्न हुआ। तब वहां डॉक्टर अंबेडकर और महात्मा गांधी दोनों ही आमंत्रित थे। उस सम्मेलन में अंबेडकर ने यह विचार मजबूती के साथ रखा कि मैं दलितों के उद्धार के लिए एक ऐसी व्यवस्था चाहता हूं जिसमें अंग्रेजों और कांग्रेस का नाम मात्र के लिए भी दखल ना हो। क्योंकि मैं ऐसा मानता हूं कि इस वर्ग के उद्धार में यह दोनों ही रोड़ा साबित हो रहे हैं। यही वजह रही कि डॉक्टर अंबेडकर ने एक पृथक राजनीतिक निर्वाचन व्यवस्था की मांग की। एक ऐसी व्यवस्था जिसमें कांग्रेस और तत्कालीन ब्रिटिश हुकूमत की कतई दखलअंदाजी ना हो। उनके इस पक्ष का महात्मा गांधी ने विरोध किया तो अपने तार्किक तथ्यों के आधार पर वे महात्मा गांधी से भिड़ गए और यह बात स्पष्ट कर दी कि वे जो मांग रहे हैं इससे कम में किसी भी कीमत पर राजी होने वाले नहीं हैं। नतीजा यह निकला कि इस सम्मेलन के बाद एक नई नीति बनी। जिसमें दलितों को अपने जनप्रतिनिधि चुनने का पृथक अधिकार प्रदान किया गया‌। इसका भी कांग्रेस और महात्मा गांधी ने प्रबल विरोध किया और यहां तक कह दिया कि यह कृत्य हिंदू समाज में फूट डालने की शुरुआती प्रक्रिया दिखाई देती है। किंतु डॉक्टर अंबेडकर दलितों को उनका अधिकार दिला कर ही माने। कालांतर में उन्होंने मंदिरों में दलितों के प्रवेश को लेकर एक बड़ा आंदोलन भी किए किया, जिसे बुद्धिजीवियों का व्यापक समर्थन प्राप्त हुआ। लेकिन तब सामाजिक व्यवस्था बहुत ज्यादा विकेट हो चुकी थी थी। उन्हें अपने प्रयास विफल साबित होते दिखाई दिए। इसी आक्रोश ने उन्हें धर्म परिवर्तन के लिए प्रेरित किया। फल स्वरूप आप बौद्ध धर्म मैं प्रविष्ट हो गए। यह डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के संघर्षशील जीवन दर्शन का ही परिणाम था कि तत्पश्चात संवैधानिक सदनों में दलित वर्ग के जनप्रतिनिधियों की आवाजें गूंजने लगीं और उनका भारी समर्थन देश की आजादी के लिए लड़ी जाने वाली लड़ाई को प्राप्त होने लगा। देश की आजादी के बाद जब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर भारत के पहले कानून मंत्री बने और उन्हीं को संविधान निर्माण समिति का अध्यक्ष बनाया गया, तब उन्होंने इस बात का बारीकी से ध्यान रखा कि आजाद भारत जातियों, संप्रदायों में विभाजित होकर काम ना करते हुए एकजुट मानव समाज के रूप में विकास के पथ को तय करेगा। यही वजह रही कि उन्होंने संविधान में ऐसे अनेक प्रावधान रखे, जिनके चलते दलित वर्ग को ही नहीं अपितु संपूर्ण मानव समाज को समानता से जीने का अधिकार मिला और यह संविधान इस बाबत प्रेरक भी सिद्ध हुआ। आपकी इन्हीं अनेक योग्यताओं को देखते हुए भारत सरकार ने मरणोपरांत डॉक्टर भीमराव अंबेडकर को भारत रत्न से सम्मानित किया। ऐसे महान देवदूत की जयंती पर उन्हें शत शत नमन।
लेखक : वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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