भगवान शिव ने ही शुरू की गुरु-शिष्य की परंपरा : पंडित प्रदीप मिश्रा
कुबेरेश्वरधाम पर देवशयनी एकादशी पर लगाया 35 क्विंटल फलहारी प्रसादी का भोग

सीहोर। भगवान शिव अनादि कहे जाते हैं। उनसे ही सृष्टि शुरू हुई और उन्हीं से सृष्टि का अंत भी होगा, लेकिन जब यह शुरू हुई, तो मानव सभ्यता के लिए ज्ञान और धर्म की आवश्यकता थी। इसलिए कहते हैं कि इस जगत के मूल कर्ता-धर्ता होने के कारण भगवान शिव ने ही गुरु-शिष्य की परंपरा शुरू की, ताकि ज्ञान का प्रचार-प्रसार हो सके। शिव पुराण कहती है जब शिष्य का पूरा भरोसा गुरु पर होता है, तभी उसका निर्माण होता है। भगवान, गुरु और माता-पिता पर विश्वास ही आपको सफल बना सकता है। उक्त विचार जिला मुख्यालय के समीपस्थ कुबेरेश्वरधाम पर जारी गुरु पूर्णिमा महोत्सव के अंतर्गत श्रीशिव महापुराण के दूसरे दिन अंतरराष्ट्रीय कथावाचक पंडित प्रदीप मिश्रा ने कहे। रविवार को देवशयनी एकादशी के पावन अवसर पर करीब 35 क्विंटल से अधिक की फलहारी सामग्री का भोग लगाया गया और उसके पश्चात यहां पर मौजूद बड़ी संख्या में श्रद्धालुओं को वितरित किया गया। रविवार को शिव महापुराण के दूसरे दिन पंडित श्री मिश्रा ने कहाकि सबसे पहली गुरु दीक्षा भगवान शंकर ने दी है और गुरु-शिष्य की परम्परा का शुभारंभ किया था। उन्होंने कहाकि एक माता जी ने प्रश्र किया था कि मुक्ति हमेशा कितनी दूर है। इसके अलावा अन्य प्रश्रों के बारे में विस्तार से चर्चा की। उन्होंने अपना कर्म स्वयं करो। अंतिम समय में जो तुमने कमाया है वही तुम्हारे साथ जाएगा। जब तुम्हारे प्राण छूटेंगे सब वहीं रह जाएगा। शरीर से टूट जाना मगर मन से कभी मत टूटना। अपने बच्चों को भी भगवान शिव को जल चढ़ाने की सीख दें। यही संस्कार उसे आगे बढ़ने में मदद करेगा। शिव महापुराण की कथा कहती है जो इस कथा का श्रवण कर लेता है उसके शरीर की मुक्ति हो जाती है।
बिना प्रभु गुणगान के जीवन सफल नहीं हो सकता
पंडित श्री मिश्रा ने कहाकि अगर मन को यह विश्वास हो जाए कि प्रभु द्वारा बनाए गए संसार में कभी कुछ गलत नहीं हो सकता, तब हम चिंता किस बात की कर सकते हैं, इसी प्रकार अगर मन में यह विश्वास हो जाए कि इस दुनिया में जो कुछ हो रहा है, कर्म और फल के नियम के अनुसार हो रहा है अन्यथा कभी कुछ भी नहीं हो सकता, तब भी हम निश्चित हो जाते हैं। चिंता हमारा कुछ बना या बिगाड़ नहीं सकती। बिना प्रभु गुणगान के जीवन सफल नहीं हो सकता। हमें अपने जीवन को सत्कर्मों में लगाना चाहिए। तभी मानव जीवन का उद्देश्य पूरा हो सकता है। यह मानव का शरीर भगवान के भजन, निस्वार्थ सेवा के लिए मिला है। चिंता करके नहीं भजन कर जीवन को गुजरे। तरह-तरह के भाव चित हमारे मन में आएंगे। लेकिन भगवान का भाव हमारे मन में नहीं आएगा। जब तक लक्ष्य निश्चित नहीं होता हम जीवन में सफल नहीं हो सकते। अपना पुण्य अपने को ही कमाना है। दुनिया में सब उधार मिल सकता है, लेकिन पुण्य नहीं।