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सिद्धचक्र महामण्डल विधान: नवपद की आराधना से आत्मा को शुद्धि की ओर ले जाएं: मुनिश्री सानंद सागर

सीहोर। आष्टा नगर के पाश्र्वनाथ दिगंबर जैन दिव्योदय अतिशय तीर्थ क्षेत्र किला मंदिर पर सिद्धचक्र महामण्डल विधान का भव्य आयोजन किया जा रहा है। जैन धर्म के इस अत्यंत पवित्र और शक्तिशाली आध्यात्मिक विधान में बड़ी संख्या में श्रद्धालु भक्ति भाव से अघ्र्य अर्पण कर रहे हैं।
यह विधान 29 अक्टूबर से प्रारंभ होकर 5 नवंबर तक चलेगा, जिसका धार्मिक विधि विधान से जयदीप जैन शास्त्री अनुष्ठान करवा रहे हैं। मुनिश्री सानंद सागर मुनिराज ने इस अवसर पर आशीष वचन देते हुए कहा सिद्ध चक्र महामण्डल विधान सिद्ध भगवानों (मोक्ष प्राप्त आत्माओं) के आराधना और स्मरण का प्रतीक है। इस विधान का मुख्य उद्देश्य आत्मा को शुद्धि की ओर ले जाना, मिथ्यात्व का नाश करना और मोक्षमार्ग की दृढ़ साधना करना है।
नवपद की आराधना है विधान की विशेषता
मुनिराज ने विधान की विशेषताओं पर प्रकाश डालते हुए बताया कि सिद्धचक्र महामण्डल विधान नौ पदों से मिलकर बनता है, जिनमें अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र, तप ये नौ पद नवपद आराधना के रूप में पूजनीय हैं। विधान में अभिषेक, पूजन, पाठ, आराधना और स्वाध्याय के माध्यम से आत्म कल्याण का मार्ग बताया गया है। उन्होंने कहा कि इस दौरान क्षमा, मैत्री, संयम और तप का अभ्यास प्रमुख रूप से किया जाता है।
सिद्धत्व का दर्पण है सिद्ध चक्र
मुनिश्री सानंद सागर ने आगे कहा सिद्ध चक्र मंडल विधान केवल एक यंत्र या मंडल नहीं, बल्कि यह आत्मा के भीतर बसे हुए सिद्धत्व का दर्पण है। जब साधक इसमें आराधना करता हैए तो वह बाहरी पूजा से अंतर्मन की ओर यात्रा करता है। उन्होंने जोर दिया कि हर मनुष्य के भीतर सिद्धत्व की शक्ति है, जिसे केवल जागृत करने की आवश्यकता है। यह विधान आत्मसाक्षात्कार की साधना है, जिससे मन की अशुद्धियां दूर होती हैं और आत्मा में समता, क्षमा और करुणा उत्पन्न होती है।

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