बजट त्वरित प्रतिक्रियाः कुँआ समुन्दर कैसे! नदियाँ ही बता दें जो गिरती हों- भूपेन्द्र गुप्ता
भोपाल
आज भारत का बजट संसद में पेश.हुआ है।कोई भी बजट अपनी आय और खर्चों का स्रोत तथा उनके समायोजन का हिसाब किताब होता है।इस दृष्टि से यह पहला भाषण है जिसमें सपने तो हैं पर स्रोत कहीं नहीं है।
विगत 2 सालों से भारत में निजी करण की बहुत तेज चर्चा हो रही है। सरकार सारे सार्वजनिक उपक्रमों को निजी हाथों तक पहुंचाना चाहती है जिसमें सुरक्षा क्षेत्र के आयुध कारखाने भी शामिल है। इन्हें अभी तक रणनीतिक क्षेत्र कहा जाता था जैसे ऊर्जा, पेट्रोलियम, आयुध ,अंतरिक्ष आदि क्षेत्र भी निजी क्षेत्रों के हवाले करने की बातें आम हो गई हैं। दुर्भाग्य यह है कि हमारा नया बजट अब निजीकरण से भी 10 कदम आगे पीपीपी मॉडल पर देश को ले जाना चाहता है जिसे ग्रामीण भाषा में कहें तो देश ठेका पद्धति पर जाने की तैयारी कर रहा है। क्या यह आज के वैश्विक परिदृश्य में जब चारों तरफ से विदेशी लोग भारत की कंज्यूमर इंडस्ट्री और भारत के उपभोक्ता को हथियाना चाहते हैं तब क्या यह ठेका पद्धति उत्पादक सिद्ध होगी? क्या सरकार भी पीपीपी मॉडल से चलेगी? यह बड़ा प्रश्न है।
देश के हालातों पर गौर करें तो औद्योगिक उत्पादन के आंकड़े बताते हैं कि विनिर्माण क्षेत्र में केवल 0.9% की वृद्धि और समस्त क्षेत्रों को मिला दें तो 1.4 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है। यह पहला मौका है जब देश में खुदरा मूल्य सूचकांक होलसेल मूल्य सूचकांक से नीचे है ।खाने के तेल और फेट पर 24.34 प्रतिशत महंगाई बढ़ी है। बिजली और ईंधन पर 11% महंगाई बढ़ी है। ऐसी परिस्थितियों में 9.2 प्रतिशत जीडीपी वृद्धि का अनुमान क्या संभव है?
जब हम आत्मनिर्भर भारत की बात करते हैं तब हमें यह सोचना होगा कि क्रूड एवं गैस क्षेत्र में हमारा उत्पादन 32 मिलियन मीट्रिक टन से घटकर 30 मिलीयन मीट्रिक टन पर क्यों गिर गया है? हमारी प्राकृतिक गैस का उत्पादन 31 बिलियन क्यूबिक मीटर से घटकर 28 बिलियन क्यूबिक मीटर तक क्यों घट गया है? हमारी रिफाइनरी जो 254 मिलियन मीट्रिक टन प्रोसेसिंग करती थी वह घटकर 221 मिलियन मीट्रिक टन कैसे पहुंच गया है? यह भी गौर करने लायक है कि बैंकों द्वारा दिए जाने वाले ऋण 8.8% से घटकर 3.6 प्रतिशत पर कैसे पहुंच गये है? देश के विकास के महत्वपूर्ण इंडिकेटर गिर रहे हैं।
विगत 7 साल से एफडीआई को देश पर भरोसे के रूप में प्रचारित किया जा रहा है और कहा जा रहा है कि पूरी दुनिया भारत में निवेश की इच्छुक है। ऐसी अवस्था में क्या विश्लेषण नहीं करना चाहिये कि जो विदेशी निवेश 6415 मिलियन अमेरिकी डॉलर था वह घटकर 20-21 में 5060 मिलियन डॉलर क्यों रह गया है?जब हर क्षेत्र में इतनी भीषण गिरावट है तब 7.3 प्रतिशत की ऋणात्मक वृद्धि से उछल कर देश 9.2% की जीडीपी में वृद्धि कैसे दर्ज करेगा? इसके वैज्ञानिक तर्क क्या है?
बजट में शोर मचाकर कहा गया है कि इन सुधारों में 60 लाख नौकरियां पैदा करने की क्षमता है ।किंतु यह बजट नौकरियों की संख्यात्मक गारंटी क्यों नहीं देता? औद्योगिक क्षेत्र को इस बजट ने जबरदस्त निराशा से घेर लिया है ।सरकार इसे 25 साल आगे तक का रोड मेप बता रही है। हमें यह विचार करना पड़ेगा कि जब हम 9.2% की जीडीपी वृद्धि की घोषणा करते हैं तब उसे विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मानिटरी फंड 8.5% क्यों मानता है। हमारी सांख्यिकी इतनी अविश्वसनीय हो गई है। सरकार ने कोरोना काल के दौरान ऑनलाइन शिक्षा के माध्यम से शैक्षणिक जगत में एक बड़ी विषमता को जन्म दिया है संसाधनों से हीन गरीब समाज शिक्षा के लाभों से वंचित हो गया है और यह आशंका है कि अगर हम शीघ्र ही अपने स्कूल नहीं खोल पाए तो एक कम पढ़ी लिखी पूरी पीढ़ी देश के सामने होगी। ऐसी परिस्थितियों में अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालयों को खुली छूट के साथ देश में अनुमति देना क्या शिक्षा के क्षेत्र में डिजिटल डिवाइड करने का षड्यंत्रकारी कदम साबित नहीं होगा? इसकी सरकार के पास क्या गारंटी है।
क्या शिक्षा अब केवल अरबपतियों और खरबपतियों के लिए ही रह जाएगी ।गरीब का बेटा डिजिटल शिक्षा की कीमत ना चुका पाने के कारण क्या प्राइमरी स्कूल भी नहीं पढ़ पाएगा। इस नीति से हम अंधेरे की तरफ बढ़ रहे हैं या रोशनी की तरफ ,हमें यह विचार करना ही होगा। इस बजट ने हमें इस दोराहे पर खड़ा कर दिया है। बजट कहता है कि सरकार 400 नई ट्रेनें शुरू करेगी जबकि रेल के निजी करण की प्रक्रिया को वह पीपीपी यानि ठेका पद्धति में बदलने का मन बना चुकी है ।कोरोना काल के नाम पर कितनी ट्रेन बंद की गई हैं बजट में इसका खुलासा होना चाहिये था।कहीं वही ट्रेनें तो नये मार्गों पर नहीं चला दी जायेंगीं।
देश का यह बजट भारत को आत्मनिर्भर बनाने में किस तरह सहयोग करेगा निर्मला सीतारमण बतातीं तो वेहतर होता।कोरोना के इस संक्रमण काल में भी जब कृषि क्षेत्र ने 3.9प्रतिशत की वृद्धि दर प्राप्त की तब उसके साथ अबोले संबंध रखने के सरकारी मंसूबों को सकारात्मक कहने के लिये विशेष हिम्मत जुटानी होगी।कुंये को समंदर बताने के लिये साहस चाहिये और सुश्री सीतारमण इस पैमाने पर साहसी सिद्ध हुईं हैं।
(लेखक स्वतंत्र विश्लेषक हैं)