
सीहोर। भक्ति का वास्तविक अर्थ ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण और प्रेम है। यह एक आंतरिक अवस्था है, जिसे व्यक्त करने के लिए किसी भौतिक प्रदर्शन या धन संपत्ति की आवश्यकता नहीं होती। भौतिक वस्तुओं के प्रति हमारा अत्यधिक लगाव ही हमें ईश्वर से दूर करता है।
यह उद्गार संत गोविंद जाने ने शहर की सिंधी कॉलोनी स्थित गोदन सरकार हनुमान मंदिर सेवा समिति द्वारा आयोजित सात दिवसीय श्रीमद् भागवत कथा के समापन अवसर पर व्यक्त किए। कथा के अंतिम दिन उमड़े जनसैलाब को संबोधित करते हुए संत श्री ने कहा कि कलयुग में मनुष्य अनेक भौतिक और मानसिक व्याधियों से घिरा हुआ है। शास्त्रों के अनुसार इस युग में धर्म और नैतिकता का क्षरण निश्चित है, लेकिन ऐसे कठिन समय में केवल नाम जप ही वह सरल नौका है, जो हमें इस भवसागर से पार लगा सकती है। उन्होंने जोर देकर कहा कि परमात्मा का नाम मर्यादा और शक्ति प्रदान करता है, जिससे नकारात्मक विचार दूर होते हैं और आत्मिक शांति प्राप्त होती है।
समझाया संतोष का महत्व
कथा के दौरान संत गोविंद राम ने भक्त शिरोमणि रैदास जी का प्रेरक प्रसंग सुनाया। उन्होंने बताया कि जब भगवान ने साधु वेश में आकर रैदास जी को लोहे को सोना बनाने वाला पारस पत्थर देना चाहा तो उन्होंने उसे स्वीकार करने से मना कर दिया। रैदास जी का मानना था कि यदि वे सोना बनाने में लग गए तो उनकी सुध भगवान के भजन से हटकर सोने की रखवाली में लग जाएगी। एक साल बाद भी जब साधु वापस आए, तो पारस पत्थर उसी छप्पर में रखा मिला जहां साधु छोडक़र गए थे। इस प्रसंग के माध्यम से संत ने समझाया कि सच्चा संत और भक्त वही है जिसे केवल नाम जप की लगन रहती है और जो कर्म के साथ धर्म को जोडक़र चलता है।
अपनाएं शांति और संतोष का मार्ग
उन्होंने श्रद्धालुओं से आह्वान किया कि जब हम भौतिक वस्तुओं के पीछे भागना बंद कर देते हैं, तभी हमें वास्तविक संतोष का अनुभव होता है। यही संतोष हमें ईश्वर के साथ गहरा संबंध स्थापित करने में मदद करता है। उन्होंने कहा कि भौतिक सुख क्षणिक हैं, जबकि सद्गुरु द्वारा दी गई राम नाम की निधि स्थायी है।