सीहोर। पार्वती गांव में चल रही कथा में रविवार को कथा के तृतीय दिवस वरिष्ठ समाज सेविका श्रीमती नमिता-अखलेश राय, श्रीमती रूपाली-नविन सोनी के द्वारा व्यासपीठ की पूजन अर्चन कर जनमानस के लिये सुख समृद्धि की कामना की एवं कथा का श्रवण किया। कथा में आचार्य पं. हर्षित शास्त्री जी ने मनु महाराज की संतानों के चरित्र का वर्णन किया। साथ ही सती चरित्र का बखान किया गया, जिसमें बताया कि किस कारण से महारानी सती ने यज्ञ कुंड में अग्नि में बैठकर अपने प्राणों का त्याग कर दिया। कथा सुनाते हुए पं. हर्षित शास्त्री जी ने कहा कि एक समय की बात है ब्रह्मा जी ने दक्ष को प्रजापति के पद पर विराजमान कर दिया, पद प्राप्त करते ही दक्ष को अभिमान आ गया और उसने सभा में आकर सबका अभिवादन किया। जब उन्होने देखा कि सभा में 3 लोग उनके स्वागत में खड़े नहीं हुए। जिसमें भगवान शिव भी थे तो दक्ष को अहंकार हुआ कि मैं इतने बड़े पद पर हूं और शंकर जी मेरे सम्मान में खड़े नहीं हुए जबकि रिश्ते में यह मेरे दामाद लगते हैं। तब दक्ष प्रजापति ने शंकर जी को श्राप दे दिया कि आज से यज्ञ में तुम्हें कोई भी भाग नहीं मिलेगा। जिस पर नंद जी महाराज क्रोधित हो गए और दक्ष प्रजापति को श्राप दिया कि तुम्हारे मस्तक पर बकरे का सर लग जाए और सभी देवता चले गए। इधर एक दिन दक्ष प्रजापति ने हरिद्वार कनखल में यज्ञ का आयोजन किया। उस यज्ञ में सभी देवताओं को स्थान दिया गया। परंतु भगवान शिव को कोई स्थान नहीं दिया गया। इधर माता सती ने पिताजी के घर जाने का भाव जागृत किया और भगवान शिव ने उन्हें बहुत रोकने का प्रयास किया, परंतु वह नहीं मानी। जब वह यज्ञ में गई तो उन्होंने कहीं पर भी जब भगवान शिव का स्थान नहीं दिखाई दिया तो उन्होंने दक्ष को ललकारते हुए दक्ष के यज्ञ में ही अपने प्राणों को त्याग दिया। तब भगवान शिव को क्रोध आया और उन्होंने अपने शिखा के बाल को उखाडक़र के पृथ्वी पर फेंका जिससे वीरभद्र प्रकट हुए। वीरभद्र ने जाकर यज्ञ को विध्वंस कर दिया और दक्ष प्रजापति के सर को काटकर यज्ञ कुंड में डाल दिया। बाद में समस्त देवताओं ने भगवान शिव से प्रार्थना की, तब भगवान शिव ने जाकर वीरभद्र को शांत किया। इसके पश्चात ध्रव की कथा कही गई जिसमें बताया गया कि प्रत्येक जीव संसार में उत्तानपाद की तरह ही है जिसकी दो पत्नी है बुद्धिमानी और मनमानी मनुष्य बुद्धिमानी के ऊपर मनमानी को चुनता है और चक्कर में पड़ जाता है। जब सुरीची जी के कहने पर सुनीति को उत्तानपाद ने महल से निकाल दिया और उत्तानपाद के सुपुत्र ध्रुव को जब पता चला कि उसके पिता महाराज उत्तानपाद हैं तो पिता की गोद में जाकर बैठ गया, तब सूरीची ने धु्रव जी को और भगवान की तपस्या करने का कहा तपस्या करो और भगवान मिले तो भगवान से प्रार्थना करना कि तुम्हारा अगला जन्म सुरुचि के गर्भ से हो जिससे तुम्हें राज सिंहासन मिले तब ध्रुव जी ने 6 महीने वन में नारद जी को गुरु बना कर तपस्या करें और छठवां महीने में पूरे ब्रह्मांड की श्वास वायु को अवरुद्ध कर दिया। तब समस्त ब्रह्मांड में हाहाकार हो गया भगवान नारायण ने फिर जाकर धु्रव को दर्शन दिए और ग्रुप पर कृपा करें 36000 वर्ष तक पृथ्वी पर राज करें और मेरे धाम को प्राप्त होंगे ऐसा आशीर्वाद देकर भगवान अंतर्ध्यान हो गए इसके बाद में ध्रुव जी महाराज के वंश की वंशावली का वर्णन किया गया जिसमें महाराज अंग वेन इत्यादि का चरित्र का बखान किया गया जड़ भरत जी की कथा बताते हुए पंडित जी ने कहा कि संसार में जीव अंतिम चरण में जिस वस्तु का ध्यान करता है वही अगली योनि में जन्म लेता है इसलिए अपने अंतिम क्षण में भगवान का ही स्मरण करना चाहिए जड़ भरत जी मृग के मोह में उलझ गए तो अगला जन्म मृग का ही हुआ पूर्व जन्म के संस्कार के प्रभाव से मृग के जन्म को पूर्ण कर पुन: ब्राह्मण के यहां जन्म लिया और अपने संस्कार को पूर्ण कर अपना प्रारब्ध समाप्त किया और मोक्ष को प्राप्त किया आगे चलकर के कथा में गुरु जी ने अजामिल उपाख्यान का वर्णन किया कि किस प्रकार अजामिल ने अपने पुत्र नारायण को बुलाया और भगवान नारायण के दूत आ गए और अजामिल के प्राणों की रक्षा करें फिर अंतिम समय आने पर अजामिल को भगवान का विमान लेने के लिए पधारे कथा में आज नरसिंह अवतार की भी कथा कही गई जिसमें हिरण्यकशिपु के द्वारा ब्रह्मा जी की तपस्या कर ब्रह्मा जी से वरदान प्राप्त किया और उस वरदान से हिरण्यकशिपु ने सब पर अपना आधिपत्य जमा लिया 1 दिन हिरण्यकश्यप वन में शिकार खेलने के लिए गया तब उसे मार्ग में कुछ बालक भगवान नारायण का पूजन करते दिखे जिससे क्रोधित हो गया तब उसकी धर्मपत्नी ने नारायण नारायण नाम का स्मरण करते ही गर्भाधान संस्कार पूर्ण किया फलस्वरूप इनके घर साक्षात भगवान नारायण का भक्त ही पैदा हुआ जिसका नाम हुआ प्रहलाद प्रहलाद जी बाल्यकाल से ही भगवान नारायण की भक्ति में लगे रहे एक दिन विद्यालय से घर आए पिताजी ने पूछा गुरु जी ने क्या पढ़ाया तो प्रह्लाद जी ने का श्रीमन नारायण श्रीमन नारायण जिस पर क्रोधित होकर हिरण्यकशिपु ने प्रहलाद पर अनेक अनेक प्रहार किए और खंभे से बांध दिया पूछा के कहां है तुम्हारा नारायण प्रहलाद जी ने बताया खंबे में है तो खंभे से ही भगवान नरसिंह प्रकट हुए और हिरण्यकशिपु का वध किया और कथा में लोगों ने खूब जयकारे लगाए ।