धर्म

अहिंसा का स्वरूप 

सामान्यत: अहिंसा को निषेधार्थक माना जाता है। ‘न हिंसा -अहिंसा’- हिंसा का अभाव अहिंसा है, यह इसकी एकांगी परिभाषा है। इसको सर्वागीण रूप से परिभाषित करने के लिए इसके विधेयार्थ और निषेधार्थ दोनों को समझना जरूरी है। किसी प्राणी के प्राणों का वियोजन नहीं करना, इस सूत्र का हिंसा के संदर्भ में जितना मूल्य है, उससे भी अधिक मूल्य है किसी भी प्राणी के प्रति अनिष्ट चिंतन के बहिष्कार का।  
असत् विचार हिंसा है। असत् वचन सा है। जितना कुछ झूठ बोला जाता है, वह हिंसा की प्रेरणा से ही बोला जाता है। असत् चिंतन और असत् वाणी की तरह असत् व्यवहार मात्र हिंसा है, चाहे वह किसी के भी प्रति हो। मनुष्य की प्रवृत्ति सत् और असत् दोनों प्रकार की होती है। जिस प्रवृत्ति के साथ असत् शब्द का योग हो जाता है, वह हिंसा-संवलित ही होती है। 
दूसरों के प्रति द्वेष की भावना, ईष्या, उन्हें गिराने का मनोभाव और उनकी बढ़ती हुई प्रतिष्ठा को रोकने के सारे प्रयत्न हिंसा में अंतर्गर्भित हैं। दूसरों के मन में भय उत्पन्न करना, उनके सामने दुखद परिस्थितियां उभार देने, उनके विकास के मार्ग में बाधा पहुंचाना आदि प्रवृत्तियां भी हिंसा की परिधि में समाविष्ट हैं। इन प्रवृत्तियों का सर्वथा निरोध अहिंसा का आदर्श है। यह अहिंसा का नेगेटिव पक्ष है। 
अपने पॉजिटिव पक्ष में अहिंसा समता, मैत्री, संयम आदि उदात्त वृत्तियों से अनुबंधित है। यहां अहिंसा का वाच्यार्थ न मारने तक की सीमा में आबद्ध नहीं है। जहां यह प्रतिबद्धता जुड़ जाती है, अहिंसा का व्यापक अर्थ एक छोटे-से संदर्भ में समा जाता है। समता का धरातल असीम है। मैत्री की पौध इसी धरातल पर फली-फूली रह सकती है। इससे आत्मौपम्य की भावना जागृत होती है। आत्मतुला की बुद्धि से प्रेरित व्यक्ति कही अहिंसा को समझ सकता है और उसका पालन कर सकता है। जो व्यक्ति छोटे और बड़े, अनुकूल और प्रतिकूल हर प्राणी के प्रति समत्व बुद्धि का विकास करता है, वह अहिंसक होता है।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button