धर्म

नदी और सागर

सुखदेव ऋषि के आश्रम में कई शिष्य रहते थे। उनमें अनुज नामक शिष्य काफी तेज था। धीरे-धीरे वह स्वयं को अन्य शिष्यों से श्रेष्ठ मानकर दूसरों को हीन समझने लगा। ऋषि उसके अंदर छिपे अहं को समझ गए और उसे एक दिन अपने साथ एक सागर के पास ले गए। विशालकाय सागर अत्यंत आकर्षक दिख रहा था। उसकी लहरें जब अठखेलियां करतीं तो मन प्रसन्न हो जाता। ऋषि ने अनुज से सागर का पानी पीने के लिए कहा। अनुज ने जैसे ही पानी मुंह में डाला वैसे ही उसने बुरा सा मुंह बनाकर पानी बाहर निकाल दिया और बोला गुरुजी यह पानी तो खारा है। मेरा मुंह का स्वाद कसैला हो गया।  
ऋषि उसकी बात सुनकर मुस्कराए। वह उसे अपने साथ लेकर आगे बढ़ते रहे। आगे एक छोटी सी नदी आई। नदी का जल शांत था। ऋषि ने अनुज से नदी का जल पीने के लिए कहा। अनुज ने जैसे ही जल मुंह में डाला वैसे ही उसके मन को अत्यंत तृप्ति मिली। वह बोला गुरुजी नदी के जल ने मुंह का स्वाद बढ़ा दिया है। इतना ठंडा और मीठा जल बहुत कम देखने को मिलता है जबकि इतने बड़े सागर का पानी एकदम खारा था।  
उसके ऐसा ही कहते ही ऋषि बोले पुत्र देखा तुमने छोटे-बडे से कुछ नहीं होता। हर व्यक्ति को अपने व्यवहार और सद्कार्यो से अपने लिए जगह बनानी पड़ती है। तुमने सागर के अहं को देखा। वह सब कुछ अपने में ही भरे रहता है। लेकिन इसका जल खारा होता है। जबकि छोटी सी नदी जो पाती है उसका अधिकांश बांटती है इसलिए उसके जल में मिठास है।  
व्यक्ति को बड़े होने पर भी अहं को अपने पास नहीं फटकने देना चाहिए अन्यथा उसका हाल भी सागर की तरह ही होता है। मेरे विचार में तुम मेरी बातों का अर्थ अच्छी तरह समझ गए हो। अनुज को अपनी गलती का अहसास हो गया। उसने अपने भीतर से अपना अहं निकाल फेंका।

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