राज्य सरकार केंद्रीय विश्वविद्यालय की तरह उच्च वेतन देने को बाध्य नहीं: सुप्रीम कोर्ट
नई दिल्ली
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि राज्य के विश्वविद्यालयों के लिए केंद्र सरकार द्वारा जारी निर्देश बाध्यकारी नहीं हैं। ये सिफारिशी प्रकृति के होते हैं। इनके आधार पर राज्य विश्वविद्यालयों के रजिस्ट्रार उच्च वेतनमान का दावा नहीं कर सकते। जस्टिस एसके कौल की पीठ ने यह फैसला देते हुए उत्तराखंड हाईकोर्ट के फैसले को निरस्त कर दिया, जिसमें रिट याचिकाकर्ता सुधीर बुड़ाकोटी को केंद्रीय विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार के बराबर वेतन देने का आदेश दे दिया गया था। पीठ ने फैसले में कहा कि इस बारे में कानून (कल्याणी मथिवनन बनाम केवी जयराज, 2015) तय है कि राज्य सरकारें केंद्र सरकार के निर्देशों से बंधी हुई नहीं है। यह बहुत हद तक केंद्रीय विश्वविद्यालय के लिए तो बाध्यकारी हो सकते हैं, जो केंद्र सरकार से फंड लेते हैं, लेकिन राज्य के संस्थानों पर ये बाध्यकारी नहीं हो सकते।
मामले के अनुसार 31 दिसंबर, 2008 को मानव संसाधन मंत्रालय ने दो पत्र जारी किए थे। इसमें विश्वविद्यालय के लेक्चरर और रजिस्ट्रार के वेतनमान को रिवाइज करने के लिए कहा गया था। उत्तराखंड सरकार ने शिक्षण फैकल्टी के लिए उच्च वेतनमान की सिफारिश स्वीकार कर ली, लेकिन रजिस्ट्रार को छोड़ दिया। याचिकाकर्ता को रजिस्ट्रार पोस्ट के लिए नियुक्ति दी गई और 2006 के नियमों के अनुसार वेतन दिया गया। कुमाऊं विश्वविद्यालय में सहायक रजिस्ट्रार के पद पर तैनात होने के बाद उन्होंने हाईकोर्ट में रिट याचिका दायर की और केंद्रीय विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रारों के समान वेतन की मांग की। इस बीच उत्तराखंड सरकार ने छठे वेतन आयोग के अनुसार अप्रैल, 2011 को उनका वेतन तय कर दिया, याचिकाकर्ता ने इसे चुनौती दी और हाईकोर्ट ने इस वेतन के असंवैधानिक मानकर याचिका को स्वीकार कर लिया।
फैसला नीतिगत था
इस आदेश के खिलाफ उत्तराखंड सरकार सुप्रीम कोर्ट आई थी। राज्य सरकार ने कहा कि लेक्चरर का वेतन रिवाइज करना और रजिस्ट्रार के वेतन को रिवाइज नहीं करने का फैसला, नीतिगत था और सरकार के इस निर्णय की न्यायिक समीक्षा नहीं हो सकती। राज्य सरकार केंद्र सरकार के विश्वविद्यालय के समान वेतन देने के लिए बाध्य नहीं है और नियुक्ति के समय उन्हें राज्य का वेतनमान ही दिया गया था।