मेडिकल की सस्ती पढ़ाई के लिए रूस-यूक्रेन जाते हैं भारतीय, बिना टेस्ट होता एडमिशन; चीन दूसरी पसंद
नई दिल्ली।
रूस, यूक्रेन समेत पूर्व सोवियत संघ के देशों में मेडिकल शिक्षा के लिए हर साल बीस हजार से भी अधिक छात्र भारत से जाते हैं। इन देशों में मेडिकल में आसानी से प्रवेश मिलना और भारत की तुलना में कुल कोर्स की लागत आधी होने की वजह से भारतीय छात्रों का इन देशों की तरफ रुझान लगातार बढ़ा है। इन्हीं कारणों से हाल के वर्षों भारतीय छात्र चीन भी जाने लगे हैं। भारत में निजी कॉलेजों में मेडिकल कोर्स की कुल लागत 70 लाख से एक करोड़ के बीच आने का अनुमान है। यदि मैनेजमेंट कोटे में एडमिशन लिया जाता है तो फिर यह लागत 30-40 लाख तक और बढ़ जाती है। जबकि रूस, यूक्रेन समेत अन्य पूर्व सोवियत संघ देशों में 30-50 लाख में पूरा कोर्स हो जाता है, जिसमें रहने और आने-जाने की कीमत भी शामिल है। इन देशों में एडमिशन दिलाने वाली एजेंसिया देश में व्यापक पैमाने पर सक्रिय हैं। जो एडमिशन लेटर से वीजा तक लगाकर देती हैं।
देश में मेडिकल में प्रवेश के लिए नीट परीक्षा में करीब 15-16 लाख छात्र हर साल बैठते हैं। 2021 में 15.44 लाख छात्र नीट परीक्षा में बैठे और 8.70 लाख ने यह परीक्षा पास की। लेकिन देश में मेडिकल की सीटें 85-90 हजार के बीच हैं। यानी पौने आठ लाख सफल उम्मीदवारों को परीक्षा पास करने के बावजूद मेडिकल में एडमिशन नहीं मिल पाता। जिन लोगों को निजी कॉलेजों में एडमिशन मिलता है, उन्हें भारी कीमत चुकानी पड़ती है।
मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया के पूर्व सचिव डा. संजय श्रीवास्तव के अनुसार पूर्व सोवियत देशों में मेडिकल में एडमिशन की प्रक्रिया बेहद आसान है। बिना किसी टेस्ट के 12वीं पास छात्रों को एडमिशन मिल जाता था। वहां निजी सरकारी विवि बहुत हैं तथा बच्चे कम हैं। फीस कम है। इधर, कुछ साल से एमसीआई ने विदेशों में मेडिकल की पढ़ाई के लिए भी नीट अनिवार्य कर दिया है। यानी नीट पास करके ही अब छात्र जाते हैं तथा वापस लौटने पर उन्हें एक टेस्ट भी पास करना होता है।
यह देखा गया है कि इन देशों से आने वाले छात्र पहली बार में बेहद कम सफल हो पाते हैं तथा उन्हें कई बार टेस्ट देना पड़ता है। यही स्थिति चीन से आने वाले बच्चों की है। इसकी कई वजह हैं रूसी देशा या चीन में उन्हें मेडिकल की अधिकतर पढ़ाई स्थानीय भाषाओं में करनी होती है। अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई गिने-चुने कॉलेजों में होती है। हालांकि अब एनएमसी ने सिर्फ अंग्रेजी माध्यम से हासिल डिग्री को ही भारत में मान्यता देने का निर्णय लिया है।
श्रीवास्तव ने कहा कि भारत में अभी मेडिकल सीटें एक लाख से भी कम है लेकिन इसके बावजूद सभी डॉक्टरों को उपयुक्त रोजगार नहीं मिल पाता है। इनमें से भी बड़े पैमाने पर पलायन भी करते हैं। कुछ साल पहले कॉलेजों को सीटों की संख्या 150 से बढ़ाकर 250 तक करने की अनुमति दी गई थी जिससे सीटों की संख्या तो बढ़ी लेकिन इससे चिकित्सा शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है। इसलिए सीटों की संख्या बहुत ज्यादा बढ़ा पाना संभव नहीं है। जबकि चीन में मेडिकल की कक्षाओं में छात्रों की संख्या का कोई नियम नहीं होता है। सैकड़ों छात्र पढ़ रहे होते हैं।
ऐसा ही पूर्व सोवियत देशों के मामले में देखा गया है। दरअसल, रूस, चीन से मेडिकल की पढ़ाई के बाद छात्रों को भारत सरकार का टेस्ट पास करने के लिए बड़े पैमाने पर कोचिंग लेनी पड़ती है जिसमें भी उनका पैंसा खर्च होता है, इसके बावजूद वह भारतीय कालेजों की तुलना में सस्ता है। इन छात्रों के पास यह भी विकल्प रहता है कि यदि भारत में उन्हें अनुमति नहीं भी मिलती तो वह उसी देश में कोई नौकरी तलाश कर सकते हैं।