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व्यर्थ नहीं जाएगा डॉ. मुखर्जी का बलिदान

व्यर्थ नहीं जाएगा डॉ. मुखर्जी का बलिदान

शिवप्रकाश  

जम्मू कश्मीर को भारतीय संविधान के दायरे में लाने और एक देश में दो विधान, दो प्रधान और दो निशान (झंडा) के विरोध में सबसे पहले आवाज उठाने वाले भारतीय जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का 23 जून को बलिदान दिवस है। उनका यह स्वप्न स्वतंत्रता प्राप्ति के 70 वर्ष बाद तब पूरा हुआ जब हम सबके प्रिय नेता माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी की सरकार ने अगस्त 2019 में संसद में संविधान के अनुच्छेद 370 एवं 35-A को समाप्त करने का बिल पारित कराया। इसके बाद ही जम्मू कश्मीर भारत देश का सही मायनों में अभिन्न अंग बना।
विशेष राज्य का दर्जा, अलग संविधान, देश के अन्य प्रदेशों के नागरिकों के जम्मू कश्मीर में प्रवेश के लिए परमिट की आवश्यकता जैसी जिन शर्तों और नियमों के साथ जम्मू कश्मीर को भारत में शामिल किया गया था, डॉ. मुखर्जी प्रारंभ से ही उसके विरोध में थे। उन्होंने इसके लिए बाकायदा जम्मू कश्मीर जाकर अपना विरोध दर्ज कराया। लेकिन चाहकर भी उनका यह स्वप्न उनके जीते जी पूरा नहीं हो पाया और रहस्यमय परिस्थितियों में 23 जून 1953 को उनकी मृत्यु हो गई। डॉ. मुखर्जी को जम्मू कश्मीर एवं देश की अखंडता के लिए बलिदान देने वाले पहले व्यक्ति के तौर पर जाना गया। इसीलिए देश उनकी पुण्यतिथि को बलिदान दिवस के रूप में मनाता है।
भारतीय संविधान के दायरे में आने के बाद से जम्मू कश्मीर की परिस्थितियों में क्रांतिकारी परिवर्तन आया है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से सरकारों ने प्रदेश में कृत्रिम सामान्यता बनाये रखी। वास्तविक अर्थों में जम्मू कश्मीर की स्थिति अनुच्छेद 370 के प्रावधानों की समाप्ति के बाद ही सामान्य हुई है। अब जम्मू कश्मीर का सही मायनों में विकास संभव होगा। केंद्र की भाजपा सरकार ने भी राज्य के विकास को लेकर अपनी प्रतिबद्धता ज़ाहिर की है। वित्त वर्ष 2022-23 के लिए केंद्र की भाजपा सरकार ने राज्य के लिए 1.42 लाख करोड़ रुपये का बजट संसद से पारित कराया है जिससे जम्मू कश्मीर में विकास के कार्य पिछले वर्षों के मुक़ाबले ज्यादा तेजी से पूरे किये जा सकेंगे। राज्य में अब न केवल रोजगार के अधिक अवसर उपलब्ध हो रहे हैं बल्कि उद्योग जगत मे निवेश के लिए भी उत्साह दिखा रहा है। अनुच्छेद 370 के प्रावधानों की समाप्ति के बाद प्रदेश में अब केंद्र के क़रीब 890 क़ानून लागू हो गए हैं। यही नहीं अब प्रदेश के लोग संविधान के तहत मिलने वाले आरक्षण के भी हक़दार हो गए हैं जिनसे उनके लिए विकास और समृद्धि के रास्ते खुले हैं । पर्यटकों की संख्या मे वृद्धि हुई है | पंचायतों को सीधे 2200 करोड़ का बजट स्वीकृत हुआ है | स्वास्थ्य सेवाओं के विकास के लिए 2 नए एम्स, 6 नए मेडिकल कॉलेज, 2 कैंसर संस्थान एवं 15 नर्सिंग कॉलेज का कार्य चल रहा है | युवा, पुलिस एवं अन्य संस्थानों में रोजगार प्राप्त कर रहे हैं |
यूं तो डॉ. मुखर्जी स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व ही भारत विभाजन के खिलाफ थे और उन्होंने संविधान सभा की बैठकों में भी अपने विचारों को काफी प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत किया था। लेकिन जम्मू कश्मीर के भारत में विलय को लेकर कांग्रेस नेताओं और तत्कालीन सरकार की सोच के साथ वे कभी एकमत नहीं थे। वे पहले ही दिन से जम्मू कश्मीर को भारतीय संविधान की सीमाओं के अंतर्गत लाने के पक्षधर थे। इसे संघर्ष की सीमा तक ले जाने की शुरुआत अप्रैल 1952 में तब हुई जब जम्मू कश्मीर की प्रजा परिषद पार्टी के नेता पं. प्रेमनाथ डोगरा नई दिल्ली में उनसे मुलाकात करने आए। डोगरा ने डॉ. मुखर्जी से राज्य में चल रहे इस आंदोलन में भाग लेने का आग्रह किया । डॉ. मुखर्जी ने डोगरा को तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से मिलकर अपना पक्ष रखने को कहा। लेकिन इसे विडंबना कहें या कांग्रेस की तत्कालीन सरकार का अड़ियल रवैया, डोगरा को अपनी बात रखने के लिए नेहरू से समय ही नहीं मिला। डॉ. मुखर्जी अपने सिद्धांतों को लेकर अटल थे। उन्होंने जम्मू कश्मीर को लेकर अपने विचारों पर कभी समझौता नहीं किया और प्रजा परिषद पार्टी के बुलावे पर अगस्त 1952 में वह जम्मू में एक सभा में शामिल हुए और ‘एक देश में दो विधान दो प्रधान नहीं चलेंगे, नहीं चलेंगे’ का नारा दिया।
डॉ. मुखर्जी को केवल जम्मू कश्मीर में भारतीय संविधान लागू करने की नीति के समर्थक के तौर पर ही नहीं देखा जाना चाहिए। शिक्षा, समाज, संस्कृति और राजनीति में भी उनका योगदान बेहद उल्लेखनीय रहा है। उनकी राजनीतिक यात्रा कलकत्ता विश्वविद्यालय क्षेत्र से 1929 में विधान परिषद से प्रारंभ हुई।  बंगाल के हितों की रक्षा के लिए वे फजलुल सरकार में वित्त मंत्री रहे। भारत सरकार के उद्योग मंत्री रहते हुए उन्होंने 6 अप्रैल 1948 को उद्योग नीति लागू की।  तीन भागों में उद्योगों का विभाजन कर भारत में उद्योगों का विकास उनका प्रयास था।  औद्योगिक वित्त विकास निगम की स्थापना, ऑल इंडिया हैंडीक्राफ्ट, ऑल इंडिया हैंडलूम बोर्ड, खादी एवं ग्रामोद्योग बोर्ड, चितरंजन रेलवे कारखाना, हिंदुस्तान एयरक्राफ्ट लिमिटेड, दामोदर नदी घाटी बहुउद्देशीय परियोजना सभी डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी के संकल्प के साकार रूप हैं।  तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु जी के विभाजन के समय, पाकिस्तान एवं पूर्वी पाकिस्तान पर विफल नीति के विरोध में उद्योग मंत्री से त्यागपत्र देकर वे भारत में आए लाखों शरणार्थियों की सेवा में जुट गए।
हमें कांग्रेस के राष्ट्रवादी विकल्प की आवश्यकता है , इस संकल्प को पूर्ण करने के लिए उन्होंने भारतीय जनसंघ की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।  डॉ० श्यामा प्रसाद जी जनसंघ के प्रथम अध्यक्ष बने। प्रथम लोकसभा चुनाव में साउथ कोलकाता से संसद सदस्य भी चुने गए।
वर्ष 1934 से 1938 तक कलकत्ता विश्वविद्यालय के सबसे युवा कुलपति होने का श्रेय भी उनके ही नाम है। इसी पद पर उन्होंने दो कार्यकाल रहते हुए कलकत्ता विश्वविद्यालय को प्रगति की ऊंचाइयों पर पहुंचाया। ब्रिटिश इंडिया के प्रतीक ‘ब्रिटिश मोहर’ को बदलकर उस स्थान पर ‘खिलते हुए कमल में श्री अंकित’ कलकत्ता विश्वविद्यालय का प्रतीक चिन्ह बनाया। उनकी शिक्षा दृष्टि उनके ही शब्दों में “मैं ऐसे व्यक्ति बनाना चाहता हूं जो नए बंगाल के योग्य नेता बनें।” इसी उद्देश्य से उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय में अनेक नए पाठ्यक्रम प्रारंभ किए। साल 1943 में आए भीषण अकाल में सरकार के निकम्मे एवं द्वेषपूर्ण व्यवहार को समाज के सामने लाते हुए स्वयं सेवा के मैदान में उतर गए । बंगाल रिलीफ कमेटी बनाकर, साथ ही तत्कालीन अन्य सामाजिक एवं धार्मिक संस्थाओं को उन्होंने साथ लेकर यह सेवा कार्य किया। मुफ्त रसोई, निशुल्क अनाज वितरण, सस्ती कैंटीन, अनाज की दुकानें, आवास, वृद्धों  एवं बच्चों के लिए दूध एवं दवाइयों का  वितरण कमेटी के द्वारा हुआ। देश के विभाजन की त्रासदी को श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अपनी आंखों से देखा था। बंगाल के कलकत्ता, नोआखाली सहित अनेक स्थानों के दंगों में मानवता कराह उठी थी। ग्रेट कलकत्ता के नाम से कुख्यात नरसंहार आज भी लोगों में सिहरन पैदा करता है। समाज का मनोबल बढ़ाने, उचित मार्गदर्शन करने एवं पीड़ित मानवता की सेवा करने के लिए अस्वस्थ होते हुए भी उन्होंने सभी स्थानों का प्रवास किया।
भारत के विभाजन के घोर विरोधी होने के बाद भी जब उनको लगा कि यदि हमने बंगाल के विभाजन की बात नहीं की तब संपूर्ण बंगाल ही हमारे हाथ से चला जाएगा। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वे भारतीय नेताओं के साथ-साथ अंग्रेज अधिकारियों से भी मिले। आज के भारत में, बंगाल उन्हीं के संकल्प का परिणाम है। उनको नव बंगाल का ‘शिल्पी’ भी कहा जाता है। एकजुट भारत की उनकी इस सोच पर आगे कदम बढ़ाने में हमें 70 वर्ष से भी अधिक का समय लग गया। लेकिन आज माननीय प्रधानमंत्री मोदी जी के कुशल नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी की सरकार डॉ. मुखर्जी की इस सोच को वास्तविकता में बदल रही है। एक भारत, श्रेष्ठ भारत के नारे के माध्यम से मोदी सरकार देश को एक सूत्र में पिरोने का काम कर रही है। जम्मू कश्मीर को भारतीय संविधान के अंतर्गत लाने के दो वर्ष पूरे होने को हैं। मोदी सरकार की नीतियों में डॉ. मुखर्जी की आकांक्षाओं की झलक स्पष्ट देखी जा सकती है। नई शिक्षा नीति को लागू करना डॉ० श्यामा प्रसाद मुखर्जी की शिक्षा अभिव्यक्ति ही है। वह दिन दूर नहीं जब भारतीय जनसंघ, जिसने बाद में भारतीय जनता पार्टी का स्वरूप लिया, के संस्थापक डॉ. मुखर्जी की राष्ट्रीय एकता व अखंडता की भावना सशक्त होकर भारत को विश्व के श्रेष्ठ राष्ट्र के रूप में स्थापित करेगी।
(लेखक भाजपा के राष्ट्रीय सह संगठन महामंत्री हैं)

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