धर्म

अज्ञान का आवरण

गुरू के पास डंडा था। उस डंडे में विशेषता थी कि उसे जिधर घुमाओ, उधर उस व्यक्ति की सारी खामियां दिखने लग जाएं। गुरू ने शिष्य को डंडा दे दिया। कोई भी आता, शिष्य डंडा उधर कर देता। सब कुरूप-ही-कुरूप सामने दीखते। अब भीतर में कौन कुरूप नहीं है? हर आदमी कुरूप लगता। किसी में प्रोध ज्यादा, किसी में अहंकार ज्यादा, किसी में घृणा का भाव, किसी में ईष्र्या का भाव, किसी में द्वेष का भाव, किसी में वासना, उत्तेजना। हर आदमी कुरूप लगता। बड़ी मुसीबत, कोई भी अच्छा आदमी नहीं दिख रहा है।  
उसने सोचा, गुरूजी को देखूं, कैसे हैं? गुरू को देखा तो वहां भी कुरूपता नजर आई। गुरू के पास गया और बोला कि महाराज! आप में भी यह कमी है। गुरू ने सोचा कि मेरे अस्त्रों का मेरे पर ही प्रयोग! गुरू आखिर गुरू था। उसने कहा कि डंडे को इधर-उधर घुमाते हो, कभी अपनी ओर भी जरा घुमाओ। घुमाकर देखा तो पता चला कि गुरू में तो केवल छेद ही थे, यहां तो बड़े-बड़े गड्ढे हैं। वह बड़े असमंजस में पड़ गया।  
कहने का अर्थ यह कि हमारी इन्द्रियों की शक्ति सीमित है। दूर की बात नहीं सुन पाते। भीतर की बात नहीं देख पाते। बहुत अच्छा है, अगर कान की शक्ति बढ़ जाए तो आज की दुनिया में इतना कोलाहल है कि नींद लेने की बात ही समाप्त हो जाएगी। देखने की शक्ति बहुत पारदर्शी बन जाए तो इतने बीभत्स दृश्य हमारे सामने आएंगे कि फिर आदमी का जीना ही मुश्किल हो जाएगा। कुरूपता तो चेतना के भीतर होती है। प्रकृति की विशेषता है कि हमारा अज्ञान का आवरण टूट नहीं पा रहा है।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button