धर्मसीहोर

दोस्ती निभाएं तो कृष्ण-सुदामा जैसी : कपिल महाराज

आस्था और उत्साह के साथ किया गया सात दिवसीय भागवत कथा का समान

सीहोर। मित्रता में जाति, धर्म, ऊंच-नीच, गरीबी-अमीरी नहीं होती। मित्रता में छल, कपट भी नहीं होता। मित्रता हर रिश्ते से ऊपर होती है। इस बात को स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने सुदामा से अपनी दोस्ती का निर्वहन कर उदाहरण प्रस्तुत किया है। उक्त विचार शहर के नेहरू कालोनी क्षेत्र में जारी सात दिवसीय भागवत कथा के अंतिम दिन कपिल महाराज ने कहे। गुरुवार को भगवान श्रीकृष्ण और भक्त सुदामा की मित्रता का वर्णन किया गया।
उन्होंने कहा कि सदमित्र प्रत्येक कठिनाई से अपने मित्र को बचाता है। संसार में सच्चा मित्र बड़ी मुश्किल से ही मिलता है। कृष्ण सुदामा की मित्रता एक आदर्श उदाहरण है। मित्रता जीवन की आवश्यक आवश्यकता है, किन्तु यह स्मरण रहे कि हम जिससे मित्रता कर रहे हैं, उसकी सदवृत्ति हो। दुष्वृत्ति युक्त मित्र घातक होता है। उन्होंने कहा कि श्री कृष्ण तथा सुदामा दोनों ने ही संदीपनी गुरु के गुरुकुल में साथ-साथ शिक्षार्जन किया था, किन्तु कालान्तर में श्रीकृष्ण मथुरा के राजा हो गए तथा सुदामा देश देशान्तर में भ्रमण कर भिक्षार्जन से अपनी आजीविका चलाने लगे। इस दौरान सिद्धपुर स्वामी विवेकानंद साहित्य एवं कला मंच, महिला जाग्रति कला मंच के संस्थापक रामबाबू सक्सेना, पन्ना सक्सेना, अवनीश श्रीवास्तव, राजेन्द्र नागर, नारायण सिंह वर्मा, मोनू वर्मा, कालू शर्मा, अशीष कुशवाहा, मुकेश नेमा, अशोक पहलवान, अनिल बिले, दुर्गा प्रसाद सेन, सोनू मिश्रा, विवेक कौशल और पवन नागर आदि ने मंच पर पहुंचकर महाराज का सम्मान किया।
उन्होंने कहा कि एक बार प्रसंगवश सुदामा ने अपनी पत्नी को बताया कि मथुरा के राजा श्रीकृष्ण हमारे मित्र हैं तथा हम दोनों ने साथ-साथ ही गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त की है। यह सुनकर उनकी पत्नी ने सुदामा से कहा कि वह कृष्ण के घर जाएं तथा अपनी व्यथा कथा बताकर सहयोग प्राप्त करें। अपनी पत्नी की हठ के समक्ष विवश सुदामा को कृष्ण के पास जाने का निश्चय करना पड़ा। सुदामा थोड़े से चावल एक पोटली में बांधकर कृष्ण महल के लिए चल पड़े। सतत यात्रा के बाद वह कृष्ण महल पहुंचे, किन्तु द्वारपाल ने अन्दर प्रवेश ही नहीं करने दिया। अनुनय-विनय करने पर द्वारपाल ने कृष्ण को जाकर बताया कि जीर्ण शीर्ण वस्त्रों को धारण किए, भिक्षुक द्वार पर खड़ा है। आपको अपना मित्र बताता है। उसका नाम सुदामा है। सुदामा का नाम सुनते ही श्रीकृष्ण बिना खड़ाऊ पहने ही द्वार की ओर दौड़ पड़े तथा सुदामा को अपने शरीर से चिपका लिया। अन्दर ले जाकर पूरा मान सम्मान किया। पूरा हालचाल पूछा। अपने हाव भाव से अभिभूत कर दिया। श्रीकृष्ण ने मित्रता के आदर्श को उच्चतम शिखर पर पहुंचाते हुए सुदामा की विदाई के बाद उन्हें अपेक्षा से कहीं अधिक द्रव्य ही नहीं अपने राज्य का दो तिहाई भाग ही दे दिया।

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