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मां विजयासन धाम सलकनपुर: करती हैैं भक्तोें की रक्षा

सीहोर। जिले में स्थित मां विजयासन धाम सलनकपुर मंदिर विश्व स्तर पर अपनी पहचान बना रहा है। यहां पर विराजमान मां विजयासन भक्तों की रक्षा करती हैैं। मंदिर का इतिहास हजारों वर्ष पुराना बताया जाता है। कहा जाता है कि मां विजयासन ने रक्त-बीज का संहार करके यहीं पर आराम किया था। मां केे दर्शन केे लिए दूर-दूर से भक्त सलकनपुर पहुंचते हैं। सलकनपुर स्थित मां विजयासन धाम आदिवासियों की कुल देवी भी हैं। सलकनपुर से करीब 20 किलोमीटर की दूरी पर विराजमान हैं मेहरूगांव वाली माताजी। इन्हें सलकनपुर वाली माताजी की बड़ी बहन माना जाता है। मेेहरूगांव में विराजमान मां जगदंबा 70 से अधिक वर्णों की कुलदेवी हैं।
सलकनपुर स्थित देवी मंदिर 1000 फीट ऊंची पहाड़ी पर स्थित है। मंदिर पर पहुंचने के लिए भक्तों को 1400 सीढ़ियों का रास्ता पार करना पड़ता है। इस पहाड़ी पर जाने के लिए कुछ वर्षों में सड़क मार्ग भी बना दिया गया है। इसके अलावा दर्शनार्थियों के लिए रोप-वे भी शुरू हो गया है, जिसकी मदद से यहां 5 मिनट में पहुंचा जा सकता है। देवी मां का यह मंदिर भोपाल से 75 किमी दूर है। होशंगाबाद से इसकी दूरी करीब 40 किलोमीटर औैर सीहोेर जिला मुख्यालय से 85 किलोमीटर है।
होती है हर मुराद पूरी-
मां बिजासन के दरबार में दर्शनार्थियों की कोई पुकार कभी खाली नहीं जाती है। माना जाता है कि मां विजयासन देवी पहाड़ पर अपने परम दिव्य रूप में विराजमान हैं। विध्यांचल पर्वत श्रंखला पर विराजी माता को विध्यवासिनी देवी भी कहा जाता है। पुराणों के अनुसार देवी विजयासन माता पार्वती का ही अवतार हैं, जिन्होंने देवताओं के आग्रह पर रक्त-बीज नामक राक्षस का वध किया था और सृष्टि की रक्षा की थी। विजयासन देवी को कई लोग कुलदेवी के रूप में भी पूजते हैं।
विजयासन धाम की उत्पत्ति-
हमेशा से ही लोगों के मन में मां विजयासन धाम की उत्पत्ति, प्राकट्य, मंदिर निर्माण को लेकर जिज्ञाषा रही है। हालांकि अभी तक इसके कोई भी ठोस साक्ष्य और प्रमाण नहीं मिल पाए हैं। जानकारों का कहना है कि यहां मां का आसन गिरने से यह विजयासन धाम बना, लेकिन विजय शब्द का योग कैसे हुआ, इसका सटीक उत्तर वे नहीं दे पाएं हैं। मां विजायासन धाम के प्राकट्य का सटीक उत्तर व उल्लेख श्रीमद् भागवत महापुराण में है। श्रीमद् भागवत कथा के अनुसार रक्त-बीज नामक देत्य से त्रस्त होकर जब देवता देवी की शरण में पहुंचे तो देवी ने विकराल रूप धारण कर लिया और इसी स्थान पर रक्त-बीज का संहार कर उस पर विजय पाई। मां भगवती की इस विजय पर देवताओं ने जो आसन दिया, वही विजयासन धाम के नाम से विख्यात हुआ। मां का यह रूप विजयासन देवी कहलाया।
बंजारों ने कराया था निर्माण-
मंदिर निर्माण के संबंध में कहा जाता है कि आज से करीब 300 वर्ष पूर्व बंजारों द्वारा उनकी मनोकामना पूर्ण होने पर इस मंदिर का निर्माण किया गया था। मंदिर निर्माण और प्रतिमा मिलने की इस कथा के अनुसार पशुओं का व्यापार करने वाले बंजारे इस स्थान पर विश्राम और चारे के लिए रूके। अचानक ही उनके पशु अदृष्य हो गए। इस तरह बंजारे पशुओं को ढूंढने के लिए निकले, तो उनमें से एक बृद्ध बंजारे को एक बालिका मिली। बालिका के पूछने पर उसने सारी बात कही, तब बालिका ने कहा कि आप यहां देवी के स्थान पर पूजा-अर्चना कर अपनी मनोकामना पूर्ण कर सकते हैं। बंजारे ने कहा कि हमें नहीं पता है कि मां भगवती का स्थान कहां है। तब बालिका ने संकेत स्थान पर एक पत्थर फेंका। जिस स्थान पर पत्थर फेंका वहां मां भगवती के दर्शन हुए। उन्होंने मां भगवति की पूजा-अर्चना की। कुछ ही क्षण बाद उनके खोए पशु मिल गए। मन्नत पूरी होने पर बंजारों ने मंदिर का निर्माण करवाया। यह घटना बंजारों द्वारा बताए जाने पर लोगों का आना शुरू हो गया और वे भी अपनी मन्नत लेकर आने लगे। हिंसक जानवरों, चौसठ योग-योगिनियों का स्थान होने से कुछ लोग यहां पर आने में संकोच करते थे। तब स्वामी भद्रानंद ने यहां तपस्या कर चौसठ योग-योगिनियों के लिए एक स्थान स्थापित किया तथा मंदिर के समीप ही एक धुने की स्थापना की और इस स्थान को चैतन्य किया। धुने में एक अभिमंत्रित चिमटा, जिसे तंत्र शक्ति से अभिमंत्रित कर तली में स्थापित किया गया है। आज भी इस धुने की भवूत को ही मुख्य प्रसाद के रूप में भक्तगणों को वितरित किया जाता है।

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